फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट ने नववें महीने में जघन्य बलात्कारियों को मौत की सज़ा सुना दी। न्यायालय की इस निर्णय से जहाँ जनता में न्यायालय के प्रति विश्वास और मजबूत हुआ है वहीँ महिलाओं में भी आत्म विश्वास बढ़ा है। अधिकतर लोग इस निर्णय का स्वागत किया है परन्तु समाचार पत्र न्यूज चैनेलों के ख़बरों के अनुसार अपने अर्थ हीन तर्क देकर कुछ लोग इसे विवादस्पत बनाने की कोशिश कर रहे हैं। उनका तर्क है ,"मृत्युदंड भयोत्पादक न होकर एक बदला है जो न्याय के नाम पर लिया जाता है.। वे लोग यह नहीं बताते कि यदि मृत्युदंड समस्या का हल नही है, तो इस प्रकार के जघन्य अपराध का समाधान क्या है ?शायद उनको भी पता नहीं हैं। खुद ही भ्रमित है और समाज को भी भ्रमित करना चाहते हैं।
इन लोगों का सबसे बड़ा तर्क यह होता है कि "मृत्युदंड के बाद भी महिलाओं के प्रति अत्याचार या बलात्कार रुका नहीं और न रुकेगा । इसीलिए मृत्युदंड नहीं देना चाहिए। "
उनसे मेरा प्रश्न है ," क्या दुनिया में किसी देश में कोई ऐसा कानून है जो बलात्कार या कोई विशेष अपराध को जड़ से ख़त्म कर दिया या पूरी तरह रोक दिया ?" उनका उत्तर निश्चित रूप से नकारात्मक होगा।
मेरा दूसरा प्रश्न ," यदि नहीं, तो फिर कानून किसलिए बनाए जाते है ?"
निश्चित रूप से कानून का पहला उद्येश्य दंड देना नहीं है वरन लोगो को जागृत करना है कि उन्हें समाज में नियमों के अनुसार किस प्रकार व्यावहार करना चाहिए और यदि वे नियम तोड़े गए तो क्या दंड मिल सकता है। अत; कानून के द्वारा उस अपराध प्रवृत्ति को कम करने की कोशिश की जाती है.। अपराधी में दंड का भय पैदा किया जाता है ताकि वह अपराध करने के पहले कई बार सोचे। जो व्यक्ति सबकुछ जानबूझ कर कानून का उल्लंघन करता है ,उसे तो दंड मिलना ही चाहिए। इसलिए उनका यह तर्क कि ,"मृत्युदंड से महिलाओं के प्रति हिंसा रुकेगा नहीं।" सही है क्योकि यह किसी तरीके से रुक नहीं सकती , केवल कानून का भय दिखाकर (दंड देकर ) इसको कम किया जा सकता है। आतंक वादी विरोधी कानून है ,उनको मृत्युदंड भी दिया जाता है फिर भी आतंकवाद पनप रहा है , क्यों ? इसीलिए मृत्युदंड देना जरुरी है.। इसके बाद भी अगर कम नहीं हुआ तो उसका कारण कनुन के अमल (implementation )में छुपा हुआ है.। उदहारण ;जैसे -यदि एक बलात्कारी पर १० साल से मुकदमा चलता है ,फिर सजा होने पर उसका कार्यन्वयन करने में और पांच साल लगता है तो इस से अपराधियों के मनोबल बढ़ता है और कानून का भय समाप्त हो जाता है.। इसलिए कानून को लागू करने वाले और न्याय करने वाले संस्थायों में सुधार की जरुरत है.। हर मुकदमा ( case)समयबद्ध और त्वरित होना चाहिए। इस से अपराध करने वालों में भय पैदा होगा।
समाचार के अनुसार, National Crime Record Bureau के नवीनतम आकड़ों के अनुसार केवल २०११ में ११७ लोगो को मृत्युदंड दिया गया है लेकिन किसी को भी अभी तक फाँसी नहीं दिया गया है.। इस से अपराधियों के मनोबल बढ़ता है और पीड़ित व्यक्ति और उनके परिवार की पीड़ा और बढ़ती है।
न्यायालय का हाथ बँधा हुआ है.। न्यायाधीश को अपने मन ,विवेक को एक तरफ रख कर ,जो कानून कहता है ,उसी के मुताविक फैसला सुनाना पड़ता है.। यही कारण है कि एक ही अपराध करने वाले पांच व्यक्तियों में से चार को मृत्युदंड मिलता है और एक को तीन साल की कैद। जुवेनाइल कोर्ट के न्यायाधीश के विवेक को जुवेनाइल कानुनसे घोर संघर्ष करना पडा होगा परन्तु विजय कानून की हुई.। यह कैसा कानून ? कैसा न्याय ?
कौन हैं जिम्मेदार इस तुगलकी कानून का ? निश्चित रूप से कानून के बनाने वाले ही इसका जवाब दे सकते हैं। इसलिए कानून के बनाने वालों से यह्प्रश्न करना चाहता हूँ कि " १७साल ९ महीने और १८ साल के लड़के में काम क्षमता ,नजरिया, शारीरिक क्षमता ,मानसिक क्षमता ,समझदारी ,भावना इत्यादि (Sex,attitude.physical efficiency , mental efficiency ,understanding,,emotion etc....).में क्या अन्तर है जिसके आधार पर १८ साल वाले को मृत्युदंड और १७ साल ९ महीने वाले को ३ साल की सज़ा देकर सुधर गृह भेज दिया जाता है? ऐसे क्रूरतम अपराध के लिए न्यायाधीश को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराध के समानुपात में वह दंड दे सके.।
मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अलग अलग बच्चों का मानसिक ,शारीरिक ,भावनात्मक विकास अलग अलग समय पर होता है.। जिस बच्चे में काम वासना उच्चस्तर पर हो,शारीरिक रूप से सम्भोग के काबिल हो ,मानसिक रूप से परिपक्क हो ,जिसमे यह समझ हो कि बलात्कार के सबूतों को मिटा देने पर वह कानून के फंदे से बच जायगा ,ऐसे बालक (मर्द) को केवल उम्र के आधार पर नाबालिग मान लेना क्या तर्क संगत है ? वह तो सभी दृष्टि कोण से एक बालिग़ (बयस्क ) व्यक्ति है। अत: उसके द्वारा किया गया बलात्कार जुवेनाइल कानून के अंतर्गत नहीं बयस्क कानून के अंतर्गत आना चाहिए और उसे वही दंड मिलना चाहिए जो बाकी सबको मिला है.।
न्यायालय की नज़र में आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है और न कोई उम्र। आंतंकवादी केवल आतंकवादी होता है.। फिर बलात्कारी के मामले में यह उम्र का बंधन क्यों ? बलात्कारी तो बलात्कारी है.। यदि उम्र को मानना ही है तो उसका सजा योग्य उम्र उस दिन से मान्य होना चाहिए जिस दिन से वह सम्भोग करने के योग्य हो जाता है.।
न्यायालय कानून को अनुशरण करता है इसीलिए कानून में परिवर्तन होना अति आवश्यक है। कानून का अमल (implementation )सही ढंग से और जल्दी हो ,न्यायालय समयबद्ध तरीके से निर्णय सुना दें ,दण्ड की तामिल जल्दी हो ,तभी अपराधियों में भय उत्पन्न होगा और अपराध में कमी आएगी।
कालिपद "प्रसाद "
इन लोगों का सबसे बड़ा तर्क यह होता है कि "मृत्युदंड के बाद भी महिलाओं के प्रति अत्याचार या बलात्कार रुका नहीं और न रुकेगा । इसीलिए मृत्युदंड नहीं देना चाहिए। "
उनसे मेरा प्रश्न है ," क्या दुनिया में किसी देश में कोई ऐसा कानून है जो बलात्कार या कोई विशेष अपराध को जड़ से ख़त्म कर दिया या पूरी तरह रोक दिया ?" उनका उत्तर निश्चित रूप से नकारात्मक होगा।
मेरा दूसरा प्रश्न ," यदि नहीं, तो फिर कानून किसलिए बनाए जाते है ?"
निश्चित रूप से कानून का पहला उद्येश्य दंड देना नहीं है वरन लोगो को जागृत करना है कि उन्हें समाज में नियमों के अनुसार किस प्रकार व्यावहार करना चाहिए और यदि वे नियम तोड़े गए तो क्या दंड मिल सकता है। अत; कानून के द्वारा उस अपराध प्रवृत्ति को कम करने की कोशिश की जाती है.। अपराधी में दंड का भय पैदा किया जाता है ताकि वह अपराध करने के पहले कई बार सोचे। जो व्यक्ति सबकुछ जानबूझ कर कानून का उल्लंघन करता है ,उसे तो दंड मिलना ही चाहिए। इसलिए उनका यह तर्क कि ,"मृत्युदंड से महिलाओं के प्रति हिंसा रुकेगा नहीं।" सही है क्योकि यह किसी तरीके से रुक नहीं सकती , केवल कानून का भय दिखाकर (दंड देकर ) इसको कम किया जा सकता है। आतंक वादी विरोधी कानून है ,उनको मृत्युदंड भी दिया जाता है फिर भी आतंकवाद पनप रहा है , क्यों ? इसीलिए मृत्युदंड देना जरुरी है.। इसके बाद भी अगर कम नहीं हुआ तो उसका कारण कनुन के अमल (implementation )में छुपा हुआ है.। उदहारण ;जैसे -यदि एक बलात्कारी पर १० साल से मुकदमा चलता है ,फिर सजा होने पर उसका कार्यन्वयन करने में और पांच साल लगता है तो इस से अपराधियों के मनोबल बढ़ता है और कानून का भय समाप्त हो जाता है.। इसलिए कानून को लागू करने वाले और न्याय करने वाले संस्थायों में सुधार की जरुरत है.। हर मुकदमा ( case)समयबद्ध और त्वरित होना चाहिए। इस से अपराध करने वालों में भय पैदा होगा।
समाचार के अनुसार, National Crime Record Bureau के नवीनतम आकड़ों के अनुसार केवल २०११ में ११७ लोगो को मृत्युदंड दिया गया है लेकिन किसी को भी अभी तक फाँसी नहीं दिया गया है.। इस से अपराधियों के मनोबल बढ़ता है और पीड़ित व्यक्ति और उनके परिवार की पीड़ा और बढ़ती है।
न्यायालय का हाथ बँधा हुआ है.। न्यायाधीश को अपने मन ,विवेक को एक तरफ रख कर ,जो कानून कहता है ,उसी के मुताविक फैसला सुनाना पड़ता है.। यही कारण है कि एक ही अपराध करने वाले पांच व्यक्तियों में से चार को मृत्युदंड मिलता है और एक को तीन साल की कैद। जुवेनाइल कोर्ट के न्यायाधीश के विवेक को जुवेनाइल कानुनसे घोर संघर्ष करना पडा होगा परन्तु विजय कानून की हुई.। यह कैसा कानून ? कैसा न्याय ?
कौन हैं जिम्मेदार इस तुगलकी कानून का ? निश्चित रूप से कानून के बनाने वाले ही इसका जवाब दे सकते हैं। इसलिए कानून के बनाने वालों से यह्प्रश्न करना चाहता हूँ कि " १७साल ९ महीने और १८ साल के लड़के में काम क्षमता ,नजरिया, शारीरिक क्षमता ,मानसिक क्षमता ,समझदारी ,भावना इत्यादि (Sex,attitude.physical efficiency , mental efficiency ,understanding,,emotion etc....).में क्या अन्तर है जिसके आधार पर १८ साल वाले को मृत्युदंड और १७ साल ९ महीने वाले को ३ साल की सज़ा देकर सुधर गृह भेज दिया जाता है? ऐसे क्रूरतम अपराध के लिए न्यायाधीश को यह अधिकार होना चाहिए कि अपराध के समानुपात में वह दंड दे सके.।
मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अलग अलग बच्चों का मानसिक ,शारीरिक ,भावनात्मक विकास अलग अलग समय पर होता है.। जिस बच्चे में काम वासना उच्चस्तर पर हो,शारीरिक रूप से सम्भोग के काबिल हो ,मानसिक रूप से परिपक्क हो ,जिसमे यह समझ हो कि बलात्कार के सबूतों को मिटा देने पर वह कानून के फंदे से बच जायगा ,ऐसे बालक (मर्द) को केवल उम्र के आधार पर नाबालिग मान लेना क्या तर्क संगत है ? वह तो सभी दृष्टि कोण से एक बालिग़ (बयस्क ) व्यक्ति है। अत: उसके द्वारा किया गया बलात्कार जुवेनाइल कानून के अंतर्गत नहीं बयस्क कानून के अंतर्गत आना चाहिए और उसे वही दंड मिलना चाहिए जो बाकी सबको मिला है.।
न्यायालय की नज़र में आतंकवादी का कोई धर्म नहीं होता है और न कोई उम्र। आंतंकवादी केवल आतंकवादी होता है.। फिर बलात्कारी के मामले में यह उम्र का बंधन क्यों ? बलात्कारी तो बलात्कारी है.। यदि उम्र को मानना ही है तो उसका सजा योग्य उम्र उस दिन से मान्य होना चाहिए जिस दिन से वह सम्भोग करने के योग्य हो जाता है.।
न्यायालय कानून को अनुशरण करता है इसीलिए कानून में परिवर्तन होना अति आवश्यक है। कानून का अमल (implementation )सही ढंग से और जल्दी हो ,न्यायालय समयबद्ध तरीके से निर्णय सुना दें ,दण्ड की तामिल जल्दी हो ,तभी अपराधियों में भय उत्पन्न होगा और अपराध में कमी आएगी।
कालिपद "प्रसाद "
21 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रस्तुति की चर्चा कल सोमवार [16.09.2013]
चर्चामंच 1370 पर
कृपया पधार कर अनुग्रहित करें
सादर
सरिता भाटिया
sateek...bilkul sahi bayan kiya apne
मैं आपके बात से बिल्कुल सहमत हूँ.……
बहुत सुन्दर आलेख मे आपके विचारों से पूर्णतया सहमत हूँ
समसामयिक सटीक लेख पढ़ कर मन सोचने को बाध्य हो जाता है कि क़ानून में भी कितनी झोल है |
आशा
मेरी भी सहमति
जंगल की डेमोक्रेसी
आभार सरिता जी !
आभार दर्शन जी !
कानून तो खुद विरोधाभाषी स्थति में है !
सटीक विश्लेषण .
सतीव ओर समयानुसार किया गया विश्लेषण ...
अंतिम पंक्तियों में लिखी बात से सहमत हूँ।
very relevant post.. i also object strongly about the liniency shown to the juvenile who is NOT a juvenile ,not by any means if we take into account the brutal and ghastly act done by him
AAPAKE TARK SE PURNATAH SAHAMAT
aapki har ek baat se main sahmat hun , aapne bahut sateek mudde uthaye hain
सटीक विश्लेषण .
hum sabke andar gussaa bhra pda hai...par sabke hath bandhe huye hai ....
puri tarah se sahmat hoon .....
द्रुत गामिन पंथ पर यदि बैल गाडी चलाएँगे,तो पंथ निर्मित करने का क्या अर्थ है.....
द्रुत गामिन पंथ पर यदि बैल गाडी चलाएँगे,तो पंथ निर्मित करने का क्या अर्थ है.....
सटीक विश्लेषण ......
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