तृतीय प्रहर रात्रि का
बनकर अभिसारिका
चुपके से मुझे छोड़कर
तू बड़ी निर्लज्ज होकर
भाग जाती है कहीं |
मैं ढूंढ़ता हूँ तुझे यहाँ वहाँ
तू मिलती नहीं कहीं |
इन्तेजार में तेरी
बदल बदल कर करवट
राह देखता हूँ तेरी |
मेरी जवानी में तू कभी
गई नहीं छोड़कर मुझे कभी
उम्र की इस पढाव पर
सहन नहीं होता विरह ,
परायापन ,बेरुखी तेरी |
जानता हूँ ........
तुझे मेरी जरुरत नहीं है
पर मुझे तेरी जरुरत है
और रहेगी जीवन भर ,
तू मुझे और ना सता
ऐ मेरी प्राणप्रिया !
नाराज न हो ,लौटकर आ,
आ मेरी प्रियतमा आ
आ मेरी चिर साथी आ
आ कर मेरी आखों में बस जा
मुझे शांति से सुला जा
आ मेरी प्रियतमा “निद्रा “आ !
कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित
21 टिप्पणियां:
सच! एक खुबसूरत प्रणय निवेदन अपनी आज की प्रियतमा से .....:-))
आ मेरी प्रियतमा “निद्रा “आ !
वाह लाजवाब
बहुत सुंदर.
bahut sundar bhavabhivyakti .badhai
बहुत सुन्दर ! अत्यंत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति !
बहुत सुन्दर...
बहुत ही सुंदर भाव...
वाह...बहुत सुन्दर...
सुन्दर मार्मिक भावाभिव्यक्ति.
राजीव जी सुचना देने के लिए आभार !
निद्रा से बेहतर कोई साथी नहीं होता ये सच है खासकर जब मन व्यथित हो। यही सुकून दे पाती है मन को ...
बहुत सुंदर
बहुत सुंदर ........
wah bahut sundar
ऐ मेरी प्राणप्रिया !
नाराज न हो ,लौटकर आ,
आ मेरी प्रियतमा आ
आ मेरी चिर साथी आ
आ कर मेरी आखों में बस जा
मुझे शांति से सुला जा
आ मेरी प्रियतमा “निद्रा “आ !
निंद्रा के लिए इतनी मनुहार …?
निद्रा के आगोश में न कोई डर न कोई चिंता ,बढ़ती उम्र में निद्रा ही तो प्रिय साथी होता है !
बहुत सुंदर, इस प्रिय की आराधना तोकरनी ही होती है।
बहुत सुन्दर रचना, बधाई.
इन दिनों मैं भी ऐसे ही मनुहार कर रहा हूँ पर नींद तो नींद है जब आएगी अपने मन से आएगी:-))
मुकेश
सही है , मंगलकामनाएं !!
प्रभावशाली और विचारपूर्ण
वाह !! बहुत सुंदर
उत्कृष्ट प्रस्तुति
बधाई ----
आग्रह है--
वाह !! बसंत--------
बहुत सुन्दर रचना, बधाई.
एक टिप्पणी भेजें