गुरुवार, 28 मार्च 2013

हिन्दू आराध्यों की आलोचना

 यह पोस्ट आदरणीया शिल्पा मेहता जी के पोस्ट

“rot ko mahla” ko Antga-t “@yaa ihndu Qama- hmaoM AataQyaaoM kI Aalaaocanaa krnao ka AiQakar dota hO Æ” के टिप्पणी  के रूप में लिखा गया परन्तु यह लेख बन गया है। इसलिए इसे पोस्ट के रूप में पब्लिश कर रहा  हूँ,.यह कोई विवाद का विषय नहीं, केवल स्वस्थ अकादमिक  विवेचना का विषय है।हर कोई अपना दृष्टि कोण रखने के लिए स्वतंत्र है।
`......................................
आदरणीया शिल्पा मेहता जी  
[sa ivaYaya pr pazkaoM ko iTPpiNayaaM evaM Aapko ]<ar pZ,nao ka saaOBaagya p`aPt huAa. pZ,kr AcCa lagaa ik Aapnao khIM tk- sao, ,khI Baavanaa%mak $p sao ,khIM ramaayaNa AaOr gaIta sao ]dahrNa dokr yah p`itpaidt krnao kI kaoiSaSa ik EaIrama AaOr EaIkRYNa yauga pu$Ya qao.Aap [samaoM kafI safla BaI hu[- hO .laoikna Aapka AaKrI inaNa-y,a “मैं यह सब कह कर सिर्फ इतना समझाने का प्रयास कर हूँ कि हिन्दू धर्म हमें कदापि अपने आराध्यों की आलोचना करने की स्वतन्त्रता नहीं देता, यह हमें झूठी पट्टी पढ़ाई गयी है , समय आ गया है की अपनी आँखों पर बंधी पट्टी को हम उतार फेंकें.”                          pD,nao ko baad kuC baatoM ABaI BaI idmaaga maoM hlacala pOda ike hue hOM. [sailae maOM ]na baataoM kao Aap sao evaM Anya PaazkaoM sao sahoja–Saoyar krnaa caahta huM.
    phlao maOM Apnao baaro maoM bata duM.maOM Aaistk huM ,naaistk nahI.ek [-Svar ,Anant
¸,, AsaIma¸ AdRSya ¸sava-vyaapI, ¸ sava-Sai@tmaana Bagavaana kho ¸ gaa^D kho ¸Allaah kho,¸ yaa  kuC AaOr. maOM ]namaoM ivaSvaasa rKta huM.[-Svar nao jaba [Msaana banaayaa tao ]sanao naa ihndu banaayaa¸ naa mausalamaana banaayaa ¸naa [-saa[- banaayaa¸ naa jaOna ¸baaOw ¸isaK banaayaa.yao saba tao [nsaana nao banaayaa.[-Svar ek hOM naama Anaok hOM.Aapnao EaIkRYNa ka AYTao<ar Satnaama pZ,a haogaa.maora ivaSvasa sabamaoM hO.maOM nahI jaanata ik Aap mauJao ihndu khoMgaI mausalamaana yaa [-saa[- ,baaOw ,jaOna. maOMnao “[-Svar” naama sao ek CaoTa saa laoK ilaKa qaa AaOr “Qama- @yaa hO “ ek kivata jaao maoro blaga 
(http://kpk-vichar.blogspot.
http://kpk-vichar.blogspot.in in)  maoM ,hO.yaid Aap caaho tao pZ, sakto hOM.

श्रीराम और श्री कृष्ण युग पुरुष थे और जनमानस में हैं।पूरा विश्व उन्हें मानते हैं फिर दुबारा इस बात को प`तिपादित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी यह बात समझ में  नहीं आती।जहाँ तक उनकी चरित्रों में कमियों की बात है ¸ जो लोग गिनाते हैं¸ उन्हें तो आप और रचना जी ने सूचीबद्ध कर दिया है।उनपर मैं चर्चा नहीं करूँगा लेकिन इतना जरुर कहूँगा कि ये कमजोरियां  एक साधारण मनुष्य में भी पाया जाता है,, इसलिए यह स्वाभाविक है कि नए युवक युवती के मन में प्रश्न उठेगा कि " श्रीराम और श्री कृष्ण साधारण मनुष्य से भिन्न कैसे हैंÆ " क्योकि आज की  शिक्षा प`णाली विद्यार्थी को जिज्ञासु बनाता है। उनकी अलौकिक शक्तियां एवं कमियों को जानने के बाद यदि उन्हें युग पुरुष या भगवान  का अवतार मानकर पूजना चाहते हैं¸ तो पूजने दीजिये।यदि कोई कहे¸,"नहीं वे साधारण मनुष्य थे लेकिन राजा होने के कारण उनकी प्रशंसा बढाचढा कर की गई है। " और वे उन्हें पूजना नहीं चाहते हैं¸ तो उन्हें भी अपने विचारों के साथ रहने दें।यही तो हिन्दू धर्म का मूल मंत्र है कि हर व्यक्ति अपने विश्वास और आस्था के साथ जी सकता है।किसी को यह मानने के लिए क्यों मजबूर किया जाय जिसे हम और आप मानते हैंÆ क्या यह कट्टरपन नहीं होगा Æ हिन्दू धर्म में कट्टरपन निषिद्ध है लेकिन कहींकहीं कट्टरपन देखने को मिलता है।यही कट्टरपन हिन्दुधर्म को ज्यादा नुक्सान करता है।दक्षिण भारत में कहीं  कहीं लोग रावण और बली की भी  पूजा करते है लेकिन  हम उन्हें बुराई का प्रतीक  मानते  है। वो भी हिन्दू हैं हम भी हिन्दू हैं। 
       असल में जिसे आप हिन्दू धर्म कह रही  है,¸ यह धर्म नहीं¸,यह एक मुक्त जीवन शैली है जिसमें  जीवन अपने तरीके से जीने की आजादी है।यह राह किसी एक व्यक्ति ने तै नहीं किया है¸,जैसे कि दुसरे धर्म में है¸ ,यह तो सामूहिक जीवन यात्रा के सामूहिक अनुभवों की समष्टि है।  "जितने मत उतने पथ "के आधार पर इस पथ की श्रृष्टि हुई है।हर कोई अपनी मर्जी से एक देव देवी की कल्पना कर डाली और उसकी पूजा की। इसलिए तो हिंदुयों के तैतिश कोटि देव देवियाँ हैं¸शायद उस समय जनसंख्या इतनी रही होगी। मैं अरविन्द मिश्रा जी के इस विचार से सहमत हूँ कि¸ " आज हिन्दू वह भी है जो किसी ईश्वर के वजूद को नहीं मानता और वह भी जो चौबीसों घंटे पूजापाठ में रत रहता है . हिन्दू होना विनम्र होना है किसी की भी पूजा पद्धति की खिल्ली न उड़ाना एक श्रेष्ठ हिन्दू का गुण है -शराब पियें या न पियें आप हिन्दू हैं ,मंदिर जाएँ या न जाएँ आप हिन्दू हैं ,मांस खायें न खायें आप हिन्दू हैं ,भगवान को गाली दें या स्तुति करें आप हिन्दू हैं -इतना सृजनशील और संभावनाओं से भरा और कोई धर्म विश्व में दूसरा नहीं है -आप सभी से अनुरोध है इसे कट्टरता का जामा न पहनाएं -कोई मेरा सम्मान करे या न करे मैं हिन्दू ही रहूँगा , मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है.

आलोचना या निन्दा : इसके बारे में मैं पौराणिक कहानी बताता हूँ जो आप भी जानते हैं .भगवान विष्णु के द्वारपाल द्वय जय और विजय को श्राप मिला कि  उन्हें मृत्यु लोक में जन्म लेना पड़ेगा तो जय विजय ने भगवान से प्रार्थना की कि¸ श्राप से जल्दी मुक्ति पाने का उपाय बताएं। भगवान ने कहा ,"यदि तुम मुझे मित्र भाव से या भक्ति भाव से पूजते रहे तो सात जन्मों में तुम्हे मुक्ति मिल जाएगी। यदि मुझसे शत्रु भाव, से आलोचना¸ निन्दा  विरोध,-,¸ करोगे तो तीन जन्मों में मुक्ति मिल जाएगी।"  जय विजय ने कहा ,"हम शत्रु भाव रखेंगे। " भगवन ने कहा ,"तथास्तु। "  
  ऐसा माना जाता है कि जय विजय का पहला जन्म "हिरण्यक और हिरनक्यशिपु " के रूप में हुआ।दूसरा जन्म "रावण और कुम्भकर्ण " के रूप में और तीसरा जन्म "कंस और शिशुपाल " के रूप में हुआ। पहले जन्म में विष्णु निंदा की,¸ दुसरे में राम की और तीसरे में कृष्ण निंदा की और वे मुक्ति पा गए। भक्ति में आप भगवान को तब याद करते हैं जब आप पर संकट आता है¸, शत्रुता में या निंदा में तो वह आपके दिमाग में चौबिश घंटे  छाया,, रहता है ¸ हुआ ना वह सबसे बड़ा भक्त Æ इसलिए निन्दूक भी भगवान  का भक्त है। उसे अपने तरीके से भक्ति करने दीजिये ,आप अपने तरीके से कीजिये।यही हिन्दू धर्म का मूल मंत्र है। इसलिए एकबार फिर कहता हूँ  कि मैं  अरविन्द मिश्रा जी के उपरोक्त कथन का समर्थन करता हूँ।     

सादर 
कालीपद "प्रसाद" 

       













       

17 टिप्‍पणियां:

Sadhana Vaid ने कहा…

बहुत सुंदर एवँ विचारपरक आलेख ! होली की आपको हार्दिक शुभकामनायें !

Shalini kaushik ने कहा…

aapse v arvind mishra ji se poorn roop se sahmat बहुत सही कहा है आपने .सार्थक प्रस्तुति मोदी संस्कृति:न भारतीय न भाजपाई . .महिला ब्लोगर्स के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

डॉ, रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक ' जी !आभार
आपको भी होली की हार्दिक शुभकामनाएँ!

Jyoti khare ने कहा…

विचारपरक आलेख
सार्थक सच
बधाई

Dr. pratibha sowaty ने कहा…

nc post sr

Ramakant Singh ने कहा…

aapaki baaton se sahamat

सुज्ञ ने कहा…

कालीपद जी,

मैँ यह मानकर चलता हूँ कि आपके वहाँ सम्पूर्ण चर्चा का गम्भीरता से अध्ययन किया होगा.
अगर ईश-निंदा व आराध्य शत्रुता भी भक्ति है और ऐसा करने वाले बराबर के हिंदु है तो भाई, ईश-निंदा का विरोध करने वाले कट्टर कैसे हो गए बँधु???
आप किस बात का समर्थन कर रहे है? इसी का कि भगवान की निंदा आलोचना अपमान को गलत आचार बताने वालों को कट्टर कह दो ताकि प्रभु से पूर्ण शत्रुता भाव स्वतंत्रता से निभाया जा सके?

आपकी पौराणीक कहानी में आपने कहा,शत्रु भाव रखने वाला और निंदक ही सबसे बडा भक्त है और उसकी मुक्ति जल्द सम्भव है, तीन जनम में ही!! तो बंधु इस बात से प्रेरणा पाकर सभी लोग प्रभु से शत्रु भाव रखले तो उन सबकी तो एक एक जनम मुक्ति हो जाएगी पर इन सभी दुष्कृत्य कर्ताओं का नाश करने के लिए स्वयं भगवान को कितने जन्म या अवतार धारण करने होंगे और उन्हें इस सब से कब मुक्ति मिलेगी?

निंदक ही सबसे बडा भक्त होता है तो यह दुनिया निंदको से भर क्यों ना गई? और यह लाखों संत भक्त प्रेम लगन और समर्पण के संदेश क्यों देते है?

Saras ने कहा…

आपका लेख बहुत पसंद आया ...वाकई हिन्दू कोई धर्म नहीं वरन एक जीवन शैली है जिसे अनादी काल से ट्रायल एंड एर्रर..की पद्ति द्वारा अपना गया है ...आत्मसात किया गया है ....और इसीलिए हम जन्म से हिन्दू होते हैं ...कन्वर्ट होकर नहीं ......

Unknown ने कहा…

bahut sundar prastuti,gambhir aur vicharniy,

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

सुज्ञ जी !

अरविन्द मिश्रा जी का जिस कथन का मैंने समर्थन किया है , आप भी उस बात का समर्थन कर चुके हैं।आपके टिप्पणी में मैंने देखा। मैंने आपका, राजन जी का नाम उल्लेख इसलिए नहीं किया की टिप्पणी बड़ी हो रही थी। इस लिए दुबारा वही बात दुहराना नहीं चाहता। संक्षेप में कहना चाहूँगा :-

१, मैं ना कोई ईश आलोचना को विरोध करने वाले को कट्टर कहा ना प्रशंसकों को। मैंने तो यह कहा कि जिस पर आप और हम विश्वास करते है वही दुसरों को मानने के लिए यदि मजबूर किया जाये तो यह कट्टरता होगी. उदा -"- क " मानता है कि राम भगवान का अवतार है . "ख " मानता है राम मनुष्य है . अब यदि "क" जबरदस्ती "ख ' को "क " की बात मानने के लिए बाध्य करता है तो यह कट्टरपण होगा। मेरा कहना है हिन्दू धर्म दोनों को अपने अपने विचार और आस्था के साथ रहने की आजादी देता है . कोई अगर कहता है ,"श्री राम ने गर्भवती सीता को वन भेजकर उस पर अन्याय किया।" तो यह कोई आलोचना या निंदा नहीं है यह तो सत्य कथन है । भक्त अपने आराध्य के गुण गान ही सुनना चाहते हैं ,लेकिक सत्य को भी स्वीकार करना चाहिए।

२. पौराणिक कहानी मेरा मन गड़ंत नहीं है। आप भी पढ़ चुके होंगे या पढ़ सकते हैं। भगवान ने खुद ही उन्हें दो विकल्प दिए या तो तुम मेरा दोस्त बनो या दुश्मन। सर्त यह भी रखी मित्रता से सात जन्म लगेंगे और शत्रुता से तीन जन्म में मुक्ति मिलेगी। जय विजय भक्त थे इसलिए ज्यादा समय उनसे दूर नहीं रहना चाहते थे ,इसलिए उनने शत्रुता को चुना। भगवान ने उन्हें उनको बिरोध {आलोचना ,निंदा इत्यादि } करने की आजादी दी कि नहीं? ह्रदय की यह विशालता क्या आप किसी भक्त या कोई और से उम्मीद कर सकते है ? अगर विशाल होता तो यह विषय यहाँ उठता ही नहीं।

सुज्ञ ने कहा…

@ मैंने तो यह कहा कि जिस पर आप और हम विश्वास करते है वही "दुसरों को मानने के लिए यदि मजबूर किया जाये तो यह कट्टरता होगी."

कालीपद जी,

हमारा विरोध ही इस पक्षपात की बात पर है। देखिए यहाँ दो विचार है, एक विचार कहता है हमें अपने आराध्यों की निंदा नहीं करनी चाहिए और दूसरा विचार कहता है हमें अपने आराध्यों की आलोचना करने की पूरी छुट होनी चाहिए। यदि पहला विचार आराध्यों की निंदा न करने के प्रकटीकरण को हम "दुसरों को मानने के लिए यदि मजबूर करना" माना जा रहा है तो दूसरे विचार पर यह आरोप क्यों नहीं लगता कि यह विचार भी जिस स्वछंद दृष्टि पर विश्वास कर रहा है, वह भी अपने विश्वास को दुसरों को मानने के लिए मजबूर कर रहा है। एक कह रहा है 'ऐसा नहीं होना चाहिए' तो दूसरा कह रहा है 'ऐसा होना ही चाहिए' पहले विचार को कट्टरता की संज्ञा? और दूसरे थोपे गए विचार का भी स्वागत और अनुकरण? यह पक्षपात क्यों? जो कोई भी उदारता का स्तुति गान कर रहे है वे स्वयं पहले विचार के प्रति उदार नहीं है। यदि वे किसी विपरित विचार मात्र के प्रति उदारता व्यक्त नहीं कर सकते, उसे जडतापूर्वक कट्टरता नाम देते संकोच नहीं करते, किसी भी तरह के विचार सम्प्रेषण के प्रति भी सहिष्णु नहीं है वे ही उठकर खुलेपन और उदारता की बात करते है? दूसरों को मानने के लिए बाध्य करना किसे कहेंगे? और वो मजबूर करेंगे, जो स्वयं उदारता के प्रति निष्ठावान नहीं है?

सुज्ञ ने कहा…

@ उदा -"- क " मानता है कि राम भगवान का अवतार है . "ख " मानता है राम मनुष्य है . अब यदि "क" जबरदस्ती "ख ' को "क " की बात मानने के लिए बाध्य करता है तो यह कट्टरपण होगा।

कालीपद जी,

उसी तरह यदि "ख" जबरदस्ती "क" को "ख" की बात मानने के लिए विवश करता है तो यह भी उछ्रंखलता होगी।

@ मेरा कहना है हिन्दू धर्म दोनों को अपने अपने विचार और आस्था के साथ रहने की आजादी देता है.

हिन्दू धर्म आजादी देता है- सही!, उदार है- सही! किन्तु साथ ही अपनी विचारधारा सहित अन्य के विचारो पर पक्षपात रहित सम्यग उदारता की अपेक्षा भी करता है। आजादी के साथ कर्तव्य और विवेक की अपेक्षा भी करता है। उसमें अगर सभी परस्पर विरोधी विचारधाओं का सम्मान है तो आस्था, समर्पण, बहुमान की विचारधारा को कट्टरपन या संकीर्ण मानने का भी किसी को अधिकार नहीं है। उस का भी ससम्मान उसमें समावेश माना जाना चाहिए।

पौराणिक कथा से अवगत हूँ। किन्तु यह कथा दृष्टिकोण विशेष को केन्द्रित कर कही गई है, कथा का संदेश शत्रुभाव से ही भक्ति-आराधना करने का उपदेश नहीं है। न यह आशय है कि 'निंदाभक्ति'ही सबसे बड़ी भक्ति है और उससे ही तत्काल मुक्ति सम्भव है। यदि ऐसा होता तो उसके बाद जगत में 'निंदाभक्ति' का ही अनुसरण किया जाता। जबकि ऐसा नहीं हुआ। यह कथा उस तरह की आराधना पद्धति को स्थापित नहीं करती।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

आभार सारस जी ! इस सत्य को समझने में और स्वीकार करने में लोग बहुत देर करते हैं या स्वीकार करते ही नहीं!

पूरण खण्डेलवाल ने कहा…

अपने आराध्यों कि आलोचना करने का अधिकार हिंदू धर्म नहीं देता है अगर देता तो जय विजय का जो उदाहरण आप ने दिया है वो अपने तीनों जन्मों में निंदा के पात्र नहीं होते बल्कि आदर कि नजर से देखे जाते !!

Rajendra kumar ने कहा…

बहुत ही सार्थक और विचारपरक आलेख,आस्था का ही नाम धर्म है,धर्म चाहे कोई भी हो आलोचना से परे रखना चाहिए.

kuldeep thakur ने कहा…

आपआप ने हिंदू धर्म को जिस प्रकार परिभाषित किया है उस के लिए आप की निष्ठा को मैं नमन करता हूं। जहां तक राम एवं कृषण के चरित्र में कमियों कि बात है वे केवल दुषप्रचार किया गया है। राम ने वोही किया जो उस समय के हिसाब से धर्म था। सीता त्याग ये संदेश देता है कि राजा के लिए निजी सुख से बड़ा उसका राज धर्म है। बलि वध द्वारा राम ने ये संदेश दिया है कि अधर्मी को दंड मिलना ही चाहिये जाहे छल का सहारा ही लेना पड़े। श्री राम मरियादा पुरषोतम तथा श्री कृषण लीला पुरषोतम थे। श्री कृषण ने महाभारत युद्ध में कई स्थानों पर धर्म की विजय के लिए छल आदि करने की सलाह तक दी, जैसे करणवध में।
मैं सोचता हूं कि मानव कल्याण के लिए किया गया कोई भी कार्य धर्म ही है।
तुलसीदास ने एक स्थान पर लिखा था [ढोल गवार सुद्र पशु नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी] आलोचना करने वालों ने इस एक वाक्य से तुलसीदास जी को नारी विरोधी कह दिया। ये शब्द केवल सागर द्वारा श्री राम का क्रोध शांत करने के लिए उस समय कहे थे जब 3 दिनों तक लंका विजय के लिए राम सागर से पथ के लिए विनय कर रहे थे। पर सागर उन की विनय न सुन रहा था। तब सागर पर श्रीराम क्रोधित हुए और सागर क्षमा याचना करते हुए इस संवाद का प्रयोग किया। अगर ये श्री तुलसीदास ने सदा नारी का सन्मान किया। सीताजी के चरित्र द्वारा उन्होंने नारी को पूजनीय बना दिया। आलोचनाकार केवल आलोचना करते हैं।


Naveen Mani Tripathi ने कहा…

इतिहास साक्षी है कट्टरता से धर्म को आघात पहुचता है ........आज देखिये इस्लाम की कट्टरता ही उसे नष्ट कर रही है ....गंभीर चिंतन के लिए विवश करती पोस्ट के लिए आभार काली प्रसाद जी .