प्रिय मित्रों ,
पिछले एक सप्ताह के प्रवास के समय ब्लॉग के माध्यम से आप से संपर्क नहीं हो पाया | प्रवास में जाने के पहले "धर्म और आध्यात्मिकता " के ऊपर एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक दिया था ,"ईश्वर कौन हैं ? मोक्ष क्या है ? क्या पुनर्जन्म होता है ?" वैसे तो यह विषय सनातन है, शाश्वत है ,इस पर मनुष्य जब से होश संभाला है ,तबसे आलोचना ,विचार विमर्श करते आये हैं |जितने लोग हैं उतने ही मत है |मुनि ऋषियों ने अपने विशुद्ध ज्ञान को शास्त्रों और पुराणों के रूप में प्रस्तुत किया !लेकिन कोई एक भी मत ऐसा नहीं है जो सर्व मान्य हो और ईश्वर का साक्षातकार कराने में समर्थ हो |यही कारण है कि आज भी ईश्वर की खोज जारी है |" ईश्वर को खोजना या पाना ही आध्यात्मिकता है "| इसी विश्वास के साथ "धर्म और आध्यात्मिकता " का दूसरा भाग प्रस्तुत कर रहा हूँ |
ईश्वर कौन हैं ? मोक्ष क्या है ? क्या पुनर्जन्म होता है ? (भाग २ )
सभी जीवों में शायद मनुष्य ही ऐसा जीव है जिसमें भाव ,भावना ,वुद्धि ,काम ,क्रोध ,लोभ , मोह, घृणा , ईर्षा ,प्यार इत्यादि स्वाभाविक प्रवृत्तियां ज्यादा पाई जाती है | अन्य जीवों में भी ऐसे अनेक सहज प्रव्र्तियाँ पाई जाती हैं परन्तु मनुष्य विशेष है एक प्रवृत्ति के लिए ,वह है "मोक्ष " पाने की प्रवृत्ति अर्थात जन्म-मृत्यु के कष्ट से मुक्ति | ऐसा माना जाता है कि आत्मा (उर्जा की इकाई ) जब (महा शक्ति पुंज ) परमात्मा में मिल (विलय ) जाती है तो उसे जन्म-मृत्यु के दुःख कष्ट से मुक्ति मिल जाती है "|यही है 'मोक्ष' की अवधारणा |
अब "मोक्ष" कैसे मिले ? न ईश्वर /अल्लाह को किसी ने देखा है ,न उनकी आकृत -प्रकृति को कोई जानता है और न उनकी निवास स्थान का पता है | इस अवस्था में समाज के हर व्यक्ति अपनी वुद्धि के अनुरूप ईश्वर की कल्पना की और उनके खोज में लग गए | कुछ विशिष्ट लोगो ने मिलकर ईश्वर की खोज के लिए कुछ अनिवार्य कार्य और नियमों का निर्धारण कर दिया | इन कायों को करना और नियमों का पालन करना "धर्म" माना गया | अर्थात धर्म का पालन करके ही ईश्वर तक पहुंचा जा सकता है |परन्तु विडंबना यह है कि कोई भी इस रास्ते पर चलकर ईश्वर तक पहुँच नहीं पाया | धर्म-कर्म सांसारिक है और आध्यात्मिकता पारलौकिक है | जहाँ धर्म-कर्म समाप्त होता है वहीँ से आध्यात्मिकता शुरू होती है !
मनुष्य के क्रमिक विकास के साथ साथ मनुष्य अनेक समूह में बंट गए और हर समूह ने धर्म-कर्मों का अलग अलग सूचि बना लिए |उन कर्मों का करना ही उस "धर्म " का पालन करना माना जाता है ,जैसे हिन्दू धर्म में पूजा पाठ,हवन करना , मुश्लिम में रोजा रख्नना ,नमाज पढना ,इत्यादि |इसी प्रकार हर धर्म का अलग अलग नियम है | परन्तु प्रश्न यह उठता है कि क्या इन धर्म -कर्मों (कर्मकांड ) से आज तक किसी धर्म में कोई व्यक्ति ईश्वर की खोज कर पाया है ? उत्तर है "नहीं '| इसका सीधा अर्थ है कि न ईश्वर इन धर्म -कर्म (कर्मकांड )से मिलता है और न कोई धर्म पुस्तक पढने से मिलता है ,अगर मिलना होता तो आदिकाल से या जब से इन धर्मों की उत्पत्ति हुई है ,तब से आज तक किसी न किसी को मिलगया होता |चूँकि किसी धर्म के माध्यम से अभीतक ईश्वर नहीं मिला इसीलिए कोई भी यह दावा नहीं कर सकता है कि उसका धर्म दुसरे धर्म से अच्छा है | इसके विपरीत सभी धर्म का इष्ट एक है | हम भूल जाते हैं कि हम धर्म का पालन ईश्वर (परमात्मा ) की प्राप्ति के लिए करते है | इसिलिये इसमें कोई बुरा काम नहीं होना चाहिए | इसके वावजूद हर धर्म में कुछ अच्छाईयाँ हैं तो कुछ बुराइयाँ भी | धर्म -कर्म एक राह है |हम सब अलग अलग राह के राही हैं लेकिन मंजिल एक हैं | हमारी राह में अभी ईश्वर मिले नहीं है , इसीलिए हमारा कोई हक़ नहीं बनता है कि हम दूसरों को कहे कि तुम अपना राह छोड़कर मेरे राह में आ जाओ | यह अनुचित कार्य किसी को करना नहीं चाहिए | वास्तव में ईश्वर कोई विशेष धर्म (कर्मकांड ) में बंधे नहीं है | सत्य तो यह है कि सभी धर्मों का मूल सिद्धांत एक ही है ,वह है ,"ईश्वर मानव के ह्रदय में निवास करते हैं "| अत: इंसान को अंतर्मुखी होकर उस "अहम् ब्रह्मा अस्मि'का खोज करना चाहिए |
बाहर वह कहीं नहीं मिलेगा |अपने में ईश्वर को खोजना ही आध्यात्मिकता का पहला सोपान | सिद्ध मुनि ऋषि एवं महामानव गौतम बुद्ध ने यही किया | उन्हें शायद निराकार ब्रह्म (महाशक्ति पुंज या प्रकाश पुंज ) का दर्शन हुआ होगा , जिसमे केवल भौतिक वस्तु की दशा की स्थिति परिवर्तन दिखाई दी होगी ,निराकार का कोई परिवर्तन नहीं हुआ होगा | उस परम सत्ता से एकात्मभाव स्थापित किया होगा और परमानन्द का अनुभव किया होगा |इसीलिए इन कर्मकांडों का पालन करना ईश्वर प्राप्ति के लिए आवश्यक नहीं लगता यदि हम अपने अन्दर के परमशक्ति पर ध्यान केन्द्रित करने में सक्षम है | इस परमशक्ति का कोई नाम नहीं है |यह तो हम अपने सुविधा के लिए उन्हें ईश्वर,अल्लाह ,गॉड आदि अलग अलग नाम से पुकारते है | इस परमाशक्ति को खोजना ही आध्यात्मिकता है |अत; धर्म -कर्म (कर्मकाण्ड ) से ज्यादा महत्वपूर्ण आध्यात्मिकता है |
आध्यात्मिकता अपने में निहित उस शक्तिकण (आत्मा )के अस्तित्व से परिचय कराता है और अंतत:उस परमशक्ति की ओर ले जाती है |
जय श्री कृष्ण !
कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित
आध्यात्मिकता अपने में निहित उस शक्तिकण (आत्मा )के अस्तित्व से परिचय कराता है और अंतत:उस परमशक्ति की ओर ले जाती है |
जय श्री कृष्ण !
कालीपद "प्रसाद "
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22 टिप्पणियां:
कालीपद "प्रसाद " ji,bahut sundar likha hae ,badhai apko
बहुत सुन्दर और भावुक अभिव्यक्ति
जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाऐं ----
सादर --
कृष्ण ने कल मुझसे सपने में बात की -------
आपका आभार ज्योति खरे जी !
आपका आभार रेखा जी !
बहुत ही सार गर्भित लेख |
इस हेतु आपका बहुत बहुत आभार |
आशा जी आपका आभार !
तत त्वम असि (YOU ARE THAT ).अस्ति भाति प्रियं नामम रूपम। यानी जो है जिसका अस्तित्व है वह उद्घाटित होता है आकर्षित करता है उसका एक नाम है एक रूप है ये पाँच गुण हर वस्तु(जीव निर्जीव लिए है ).THE CREATOR ,THE CREATED AND THE MATERIAL ALL ARE THE SAME .THERE IS ONLY ONE RELIGION IT IS ETERNAL (SANATAN ),CALL IT BY ANY NAME .
अहम ब्रह्मास्मि !सुन्दर पोस्ट।
जय श्री कृष्ण
वीरेन्द्र भाई ,आभार आपके सुन्दर टिप्पणी के लिए !
जय श्री कृष्ण !
जय श्री कृष्ण !
jai shri karishna ..
बहुत ही बढ़िया लेखन , आ. जय जय श्री राधेश्याम !
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शुक्रिया आपकी सद्य टिप्पणियों और बधाई सशक्त लेखन के लिए। आभार।
आपका आभार !
आपका आभार !
आपका आभार !
आदरणीय काली प्रसाद जी, सादर नमन! सुंदर प्रस्तुति! साभार!
धरती की गोद
बहुत सारगर्भित आलेख...
आपका आभार संजय कुमार जी !
आपका आभार शर्मा जी !
ईश्वर का अस्तित्व सब जड और चेतन में हैं यही समझें और बरतें तो मोक्ष मिल ही जायेगा।
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