शिर्डी के साईं बाबा भगवान है या नहीं इस विषय पर चर्चा के लिए यह धर्म संसद शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती द्वारा बुलाया गया था !इसमें साईं भक्तों को भी अपना पक्ष रखने के लिए आमंत्रण किया गया था |सबसे पहले यह कहना उचित होगा कि यह विषय ही गलत है | साईं के भक्तों ने बार बार यह कहा कि साईं ने कभी नहीं कहा कि वह भगवान है |इसलिए इसपर विचार करना ही अर्थ हीन है | जब किसी के तरफ से साईं के भगवान् होने का कोई दावा ही नहीं है तो चर्चा किस बात की ? जहाँ तक साईं पूजा की बात है तो हिन्दू धर्म में तो ३३ कोटि,देव देवी हैं ,भक्त किसी की भी पूजा कर सकते है |किसी की पूजा करने में तो धर्म में कोई बाधा नहीं है ! साईं ने ऐसा काम किया है जिस से लोग उन्हें देवतुल्य मान कर पूजने लगे |इसमें गलत क्या है ? शास्त्रों में ३३ कोटि देवों के सभी नाम तो लिखे नहीं है फिर भी उनकी पूजा क्यों होती है ? जिस समय शात्रों को लिखा गया था उस समय साईं का आभिर्भाव धरती पर नहीं हुआ था इसीलिए उनका नाम शास्त्रों में कैसे आता ?शास्त्रों को लिखने वालों के स्वप्नों में नहीं आया होगा कि कलियुग में साईं नाम से कोई महात्मा होंगे जो जनता के दिलों में राज करेंगे |
दूसरी बात जो विचार करने लायक है वह है कि भगवान कौन हैं ?भगवान की परिभाषा क्या है ? उनका स्वरुप क्या है ? राम ,कृष्ण ,बुद्ध ,नानक भी मानव थे लेकिन उन्हें हिन्दू भगवान् मान कर पूजते हैं| क्या वे भगवान् के परिभाषा के मुताबिक खरे उतरते हैं ? किसी बड़े को या महामानव को पूज्य मान कर पूजा करना, श्रद्धा करना तो हिन्दू धर्म का परम धर्म ,फिर साईं को पूज्यमान कर यदि उनके भक्त उनकी पूजा करे तो शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और उनके भक्तों को आपत्ति क्यों है ?
अपने को साधू सन्त कहलाने वाले और भारतीय संस्कृति के रक्षक मानने वालों ने आमंत्रित साईं भक्तो से जो व्यावहार किया वह निश्चित रूप से सभ्य संकृति का परिचायक नहीं है ! वे आमंत्रित थे ,उन्हें अपनी पूरी बात सबके सामने रखने का अवसर देना चाहिए था ,उनकी बातो का तर्क से खंडन करना चाहिए था , वो तो किया नहीं गया उलटे उन्हें मंच से निकाल दिया गया ! इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि शंकराचार्य के शिष्यों में अलग विचारधारा के लिए सहन शक्ति नहीं है |जो वो सोचते है उसे ही दूसरों से मनवाना चाहते हैं | हिन्दू धर्म में तो सभी धर्म समा जाते है ,सभी संप्रदाय समा जाते हैं फिर साईं सम्प्रदाय क्यों नहीं ?
शंकराचार्य और उनके शिष्यों से यही उम्मीद की जाती है कि इस बात को और तुल ना दे और भक्तों की भावनाओं का सम्मान करते हुए ,साईं पर कोई और विवादस्पद बयां न दें !
विनीत
कालीपद "प्रसाद "
सर्वाधिकार सुरक्षित
दूसरी बात जो विचार करने लायक है वह है कि भगवान कौन हैं ?भगवान की परिभाषा क्या है ? उनका स्वरुप क्या है ? राम ,कृष्ण ,बुद्ध ,नानक भी मानव थे लेकिन उन्हें हिन्दू भगवान् मान कर पूजते हैं| क्या वे भगवान् के परिभाषा के मुताबिक खरे उतरते हैं ? किसी बड़े को या महामानव को पूज्य मान कर पूजा करना, श्रद्धा करना तो हिन्दू धर्म का परम धर्म ,फिर साईं को पूज्यमान कर यदि उनके भक्त उनकी पूजा करे तो शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती और उनके भक्तों को आपत्ति क्यों है ?
अपने को साधू सन्त कहलाने वाले और भारतीय संस्कृति के रक्षक मानने वालों ने आमंत्रित साईं भक्तो से जो व्यावहार किया वह निश्चित रूप से सभ्य संकृति का परिचायक नहीं है ! वे आमंत्रित थे ,उन्हें अपनी पूरी बात सबके सामने रखने का अवसर देना चाहिए था ,उनकी बातो का तर्क से खंडन करना चाहिए था , वो तो किया नहीं गया उलटे उन्हें मंच से निकाल दिया गया ! इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि शंकराचार्य के शिष्यों में अलग विचारधारा के लिए सहन शक्ति नहीं है |जो वो सोचते है उसे ही दूसरों से मनवाना चाहते हैं | हिन्दू धर्म में तो सभी धर्म समा जाते है ,सभी संप्रदाय समा जाते हैं फिर साईं सम्प्रदाय क्यों नहीं ?
शंकराचार्य और उनके शिष्यों से यही उम्मीद की जाती है कि इस बात को और तुल ना दे और भक्तों की भावनाओं का सम्मान करते हुए ,साईं पर कोई और विवादस्पद बयां न दें !
विनीत
कालीपद "प्रसाद "
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9 टिप्पणियां:
अच्छा लेखन , आ. धन्यवाद !
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जिनको आप आमंत्रित साईं भक्त कह रहे हैं वो गलत हैं । धर्म संसद में साईं संस्थान के प्रतिनिधि के तौर पर किसी को आमंत्रित किया गया था लेकिन साईं संस्थान ने अपना कोई प्रतिनिधि वहां भेजा ही नहीं था । ऐसे में जो लोग धर्म संसद में किसी भी आमंत्रित धर्म संस्था से जुड़े ना हो उनको बोलने की इजाजत कैसे दी जा सकती थी । वैसे भी वहाँ अन्य शंकराचार्य और महामंडलेश्वर उपस्थित थे ऐसे में किसी एक पर निशाना साधना गलत है ।
पूरण खंडेलवाल जी यहाँ किसी को निशाना नहीं बनाया जा रहा है ,ना ऐसी कोई इरादा है ,यहाँ केवल उनका जिक्र किया गया है जिन्होंने यह धर्म संसद बुलाया है | साईं के बारे में निर्णय होना था इसीलिए यदि कोई साईं भक्त कुछ बोलना चाहता था उसे बोलने देना चाहिए था ! स्वामी विवेकानंद को भी ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़ा था |यदि उन्हें अनुमति नहीं मिलती तो हिन्दू धर्म का इतना प्रचार प्रसार नहीं होता !
बढिया आलेख...
उपयोगी आलेख।
विचारणीय आलेख...
व्यक्ति की आस्था के साथ कोई भी जबरदस्ती नहीं की जा सकती। भारत में कितने ही परिवार ऐसे मिल जायेंगे जो अपने परिवार के बुजुर्ग के देहांत के बाद उनहें भगवन मानते हैं , उनके घरों में मंदिरों में उनके चित्र देवताओं के साथ रख कर पूजे जाते हैं अब उनहें भी शंकराचार्य रोकेंगे? यह व्यक्ति की भावना , व विश्वास से जुड़ा मसला है ,अच्छा हो अगर धर्म गुरु इसमें दखल न करें क्योंकि बात से बात बहुत आगे अंतहीन सिले तक चलती जाएगी
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sarthk aur sateek baat ke sath sundar alekh ...
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