मंगलवार, 23 अक्टूबर 2012

दुनिया एक रंगमंच



दुनियाँ एक रंगमंच है
यहाँ कौन अपना ! कौन है  पराया !!
कोई नहीं जानता ,
किसी से किसी का कोई नहीं
पुराना नाता।
मंच पर ही होता है क्षणभर का रिश्ता।

आते है हर कोई बारी-बारी
अपनी भूमिका निभाकर
जाते हैं बारी बारी ,
ज्यों मुसाफिरखाने  में
अनजाने मुसाफिर, आते जाते बारी बारी।

जग- नाट्यशाला में
मुलाकात होती  है,
कोई पापा -मम्मी
कोई चाचा -चाची
या भाई-भाभी बनते है,
न जाने और कितने रिश्तों में बांध जाते हैं,
और निभाते हैं रिश्तेदारी।

सब निभाते हैं अपने अपने
चरित्र की भूमिका ,
कभी लगन से
कभी बेरुखी से
पर जबतक मंच पर रहते हैं ,
अभिनय करते हैं रिश्ते निभाने का।

इस क्षणिक मुलाकात में
आपस की प्यार मुहब्बत में
ख़ुशी के सातरंग घोलने में
कोई नहीं छोड़ते कोई कसर ।

ख़ुशी में हँसते  हैं साथ साथ
दू:ख में रोते हैं साथ साथ
नाचते गाते जीवन में
हर रस्म निभाते है  साथ साथ।
पर जब अभिनय समाप्त होता है किसी का
गिरता है पर्दा उसके जिंदगी का
और छुट जाता है साथ उसका
तब चिता ही करता है घोषणा
इस रिश्ते की समाप्ति का।

किसी के जाने से
रंगमंच का खेल रुकता नहीं,
बचे लोग पलभर आँसू बहाकर
फिर अभिनय करना भूलते नहीं।
यही रीति चलती आयी है
चलती जायेगी अनादिकाल से तबतक
जबतक नहीं होता  नाटक  का अंत।

किसने लिखा इस नाटक को
कब  हुआ शुरू, कब  होगा इसका अंत ?
कहाँ है वह नाटक कार
किसी को पता नहीं अब तक।
पर ,विचित्र है यह नाट्यकार
विचित्र है हर पात्र  उसका
असंख्य चरित्र है रंगमंच पर
किन्तु किसी में नहीं कोई समानता,
रंग, रूप, आकार, प्रकृति में
हर चरित्र अलग है , और निभाते है अलग भूमिका।

नियति कहो इसे या प्रकृति कहो
या कहो कुछ और ,
निरन्तरता है इसका  नियम
इसे स्वीकार नहीं कुछ और।

रचना : कालीपद "प्रसाद " 

5 टिप्‍पणियां:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

सही बात। अंतिम पैरा लाज़वाब है।

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

ये दुनिया की रीति है पुरानी
अपने ही कभी कभी पराये लगने लगते है

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

एक दम सच्ची बात...
बहुत सुन्दर रचना......
सादर
अनु

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपने सार्थक रचना रची है,
जीवन एक रंगमंच ही तो है!

Vivek Jain ने कहा…

बहुत सुन्दर प्रस्तुति