तृतीय प्रहर रात्रि का
बनकर अभिसारिका
चुपके से मुझे छोड़कर
तू बड़ी निर्लज्ज होकर
भाग जाती है कहीं |
मैं ढूंढ़ता हूँ तुझे यहाँ वहाँ
तू मिलती नहीं कहीं |
इन्तेजार में तेरी
बदल बदल कर करवट
राह देखता हूँ तेरी |
मेरी जवानी में तू कभी
गई नहीं छोड़कर मुझे कभी
उम्र की इस पढाव पर
सहन नहीं होता विरह ,
परायापन ,बेरुखी तेरी |
जानता हूँ ........
तुझे मेरी जरुरत नहीं है
पर मुझे तेरी जरुरत है
और रहेगी जीवन भर ,
तू मुझे और ना सता
ऐ मेरी प्राणप्रिया !
नाराज न हो ,लौटकर आ,
आ मेरी प्रियतमा आ
आ मेरी चिर साथी आ
आ कर मेरी आखों में बस जा
मुझे शांति से सुला जा
आ मेरी प्रियतमा “निद्रा “आ !
कालीपद "प्रसाद "
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