सोमवार, 27 जुलाई 2015

इंसान ईश्वर को क्यों पुजता है ?





भूल जाते है इन्सान कि मृत्यु अटल है
हर कोई यहाँ मृत्यु की पंक्ति में खड़ा है
क्रमागत मृत्योंमुखी है किन्तु इतना धीरे
आभास नहीं होता ,यही तो आश्चर्य है | 

हाँ ,इंसान को पता नहीं लगता कि कब वह मृत्यु के द्वार पहुँच गया |जिंदगी मौज मस्ती में बिता देता है ,दूसरों को मरते देखकर भी नहीं सोचता कि उसे भी एक दिन इस दुनिया को छोड़कर जाना है  |
महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था,”दुनियाँ में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?”
युधिष्ठिर का जवाब भी यही था ,”लोग दुसरे को मरते हुए देखते है परन्तु यह नहीं सोचते कि उसे भी एक दिन मरना होगा और बेफिक्र होकर अपने जीवन में मस्त रहते हैं| यही सबसे बड़ा आश्चर्य है |“
यक्ष तो संतुष्ट हो गया था इस जवाब से ,किन्तु इंसान के मन में झांककर अगर देखें तो शायद यह उत्तर सही नहीं था | इंसान कभी भी मृत्यु के प्रति बेफिक्र नहीं रहा है | वह बेफिक्र होने का दिखावा करता है |भय को छुपाने की कोशिश करता है | उसे हर घडी मृत्यु का भय सताता है |  मृत्यु की भय से उसे कभी भी मुक्ति नहीं मिली | कभी यह दबा रहता है कभी उभर कर ऊपर आ जाता है तब उसके मन,प्राण ,शरीर में कम्पन उत्पन्न करता है | वह उस भय से बचने के लिए किसी की तलास करता है जो उसे मृत्यु के भय से बचा सके | वह किसकी तलास करता है ? कौन उसको मृत्यु के हाथ से बचा सकता है ? उसे नहीं पता | उस अनजान व्यक्ति को इंसान ने ईश्वर ,अल्लाह, गॉड के नाम से पुकारा | अगर मृत्यु नहीं होती तो इंसान ईश्वर ,अल्लाह, गॉड को याद नहीं करते,न उसको पूजते और न मंदिर,मस्जिद ,चर्च,गुरुद्वारा बनाते | यह मृत्यु का डर ही है जिसके कारण ईश्वर का अस्तित्व है | ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारा बनाये गये | वो इनसान जिसे मौत से डर नही लगता ,वह न मंदिर जायगा न भगवान को पुजेगा | जब तक मृत्यु का भय है तब तक ईश्वर की पूजा होती रहेगी और मंदिर मस्जिदे बनते रहेंगे | अत: यह भय ही है जो इंसान जो भगवान के शरण में जाने के लिए मजबूर कर देते हैं |
         मौत तो प्रत्यक्ष है ,परन्तु मौत से बचाने वाले भगवान अप्रत्यक्ष है , यह एक रहस्य है |इस रहस्य से जिस दिन पर्दा हट जायगा उस दिन मंदिर,मस्जिद जैसे देवस्थान का महत्व भी घट जायगा |  ईश्वर जब सामने होंगे तो मंदिर की जरुरत क्या रहेगी ? पण्डे ,पुजारी ,ज्योतिषों,मठाधीशों के धंधे बंद हो जायेंगे |
         मनुष्य में सोच है ,यही भय उत्पन्न करता है |पशु पक्षी में मनुष्य जैसा सोच नहीं है | इसीलिए वे हमेशा भयभीत नहीं रहते हैं | आपातकालीन खतरे का भय है ,प्राण बचाने के लिए छटपटाते है किन्तु यह क्षणिक है | मनुष्य सदा भयभीत रहते हैं | प्रश्न उठता है ,- आखिर यह भय क्यों है ? गीता में कहा गया है ,” जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है वैसे ही आत्मा पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करती है |”
इंसान इस बात को सुन लेता है, पढ़ लेता है, परतु उस पर पूरा आश्वस्त नहीं हो पाता है|  पुराना वस्त्र  त्याग कर नया वस्त्र धारण करने में उसे डर नहीं लगता क्योंकि नया वस्त्र के बारे में वह सब कुछ जानता है ,वह निश्चिन्त रहता है | किन्तु पुराना शरीर छोड़ने के बाद उसे नया शरीर मिलेगा या नहीं, इसके बारे में उसे कोई निश्चित जानकारी नहीं है | इस शरीर को छोड़ने के बाद वह कहाँ रहेगा ? कौनसा शरीर मिलेगा ? मिलेगा या नही मिलेगा ?  कुछ भी पता नहीं | ये सब अज्ञानता के अन्धकार में छुपा है और इस अन्धकार में उसे धकेल देती है मौत | इस अनिश्चितता  के कारण मृत्यु से इंसान को डर लगता है | यदि उसे मृत्यु के
पहले और बाद में होनेवाली हर घटना की जानकारी मिल जाय तो शायद वह ईश्वर को याद करना भी भूल जाय | हो सकता है उस समय भगवान् की अवधारणा बदल जाय |  हर हाल में मृत्यु का भय ही मनुष्य को भगवान के शरण में ले आता है |

कालीपद ‘प्रसाद’                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

बुधवार, 22 जुलाई 2015

मानव अस्तित्व खतरे में !





मानवविज्ञानी एवं वैज्ञानिकों का मत है - पृथ्वी की उत्पत्ति के लाखों वर्ष बाद पृथ्वी में जीव की उत्पत्ति हुई |महुष्य की उत्पत्ति बहुत बाद करीब चालीश लाख साल बाद हुई वो भी होमो (Homo) के रूप में | परन्तु आधुनिक मनुष्य जिसे Homo Sapiens कहते हैं, उसकी उत्पत्ति करीब २००.००० वर्ष पहले हुई थी, परन्तु मनुष्य के शारीरिक,मानसिक और व्यवहारिक क्रमिक विकास ४०-५०,००० वर्ष पूर्व शुरू हुई | इतने लम्बे समय के बाद मनुष्य अपने आपको जीव में सर्वश्रेष्ट मानते है |यह सच भी है, लेकिन आज का मनुष्य का इतिहास इतना पुराना नहीं है | भारत को ही ले लिया जाय तो वैदिक काल से पहले का कोई प्रमाणित/विश्वसनीय इतिहास उपलब्ध नहीं है | इससे यही कहा जा सकता है कि भारत में आधुनिक मनुष्य का आगमन करीब ५००० साल पूर्व हुआ था |
रामायण, महाभारत में ज्ञान, विज्ञानं, आग्नेय अस्त्र, वरुण अस्त्र, वायु अस्त्र, विमान आदि का उल्लेख है |प्रश्न उठता है क्या वास्तव में वे अस्त्र और विमान मौजूद थे या यह केवल रचनाकार की काल्पना है? क्या वाणों से आग निकलती थी? पानी गिरता था? हवा चलती थी? या अतिशयोक्ति है? इसके प्रबल समर्थकों का उत्तर होगा हाँ ये सब थे पर नष्ट हो गए| अगर उनकी बात मान ली जाय तो फिर प्रश्न उठता है कि कैसे नष्ट हो गए? इससे सम्बंधित ज्ञान की पुस्तकें कहाँ गई? इसके उत्तर में  समर्थक चौराहे पर खड़े नज़र आते हैं| कौन सा जवाब दें समझ में नहीं आता है| एक तरफ श्रीकृष्ण को भगवान मानते है और मानते हैं कि धर्म की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण ने महाभारत का युद्ध करवाया| दुसरे तरफ पूर्ण विकसित सभ्यता का विनाश का जिम्मेदार कृष्ण को मानते हैं| श्रीकृष्ण चाहते तो इस युध्द को रोक सकते थे किन्तु रोका नहीं| इसी युद्ध में मानव के साथ मानव इतिहास के सभी उपलब्धियाँ नष्ट हो गई| महाभारत के बाद नई सभ्यता की जन्म हुई| आज का मानव उसी सभ्यता का उपज है|
       कहते हैं,”इतिहास अपने आपको दोहराता है|“ आज विश्व की जो दशा है, परिस्थितियाँ जैसे बदल रही है, उससे लगता है मनुष्य की अस्तित्व ही खतरे में है| अहम्, प्रतिस्पर्धा, आणविक अस्त्रों का जाल जैसा फैलता जा रहा है, उसे देखकर यही लगता है कि संसार के सारे वुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक केवल आधुनिक सभ्यता नहीं, ईश्वर की सर्वोत्तम सृष्टि मानव जाति को भी पृथ्वी से निर्मूल करने में तुले हुए हैं| आज अगर मनुष्य की अस्तित्व मीट गयी तो फिर लाखों वर्ष लग जायेंगे पृथ्वी पर मानव सभ्यता विकास होने में| वैज्ञानिक अपना ज्ञान रचनात्मक कार्य में लगायें, ना कि परमाणु या जैविक अस्त्रों के निर्माण में| शक्तिशाली राष्ट्र विनम्रता दिखाएँ और अपनी शक्ति विश्व मानव कल्याणकारी काम में लगाएं| इस सभ्यता को एवं मानव जाति को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिवद्धता दिखाए अन्यथा पृथ्वी एक दिन अपनी सृजन पर आँसू बहायगी|

कालीपद 'प्रसाद'