गुरुवार, 17 सितंबर 2020

श्राद्ध भोज बंद होना चाहिए

  श्राद्ध क्या है ? श्रद्धा से किया गया कर्म  को श्राद्ध कहते हैं | जिस  काम में श्रद्धा नहीं है वह श्राद्ध  नहीं है | 

परिवार में किसी की  मृत्यु  होने पर उनकी आत्मा की  शांति के लिए लोग  श्रद्धा पूर्वक भगवान से दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं | इसके लिए उपयुक्त तो यही है कि इष्ट मित्र सब इकट्ठा होकर दिवंगत व्यक्ति के चित्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित करे और आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करे | लेकिन समाज में आज कु-प्रथा का बोलबाला है | ब्राह्मण द्वारा दिया गया निर्देहानुसार पहले ब्राहमण द्वारा पूजा पाठ, मुंह माँगा उनको दान दक्षिणा, ब्राहमण भोजन, समाज के लोगों का भोजन कराना अनिवार्य हो गया है | संख्या में कोई पाबन्दी नहीं है | गाँव में तो हज़ारों की संख्या में लोग भोजन करते हैं |जिनके पास सामर्थ्य  नहीं है, उन्हें कर्ज लेकर ये सब करना पड़ता है | क्या यह कार्य उस दुखी परिवार पर और अधिक दुःख लाद देना नहीं है ? इस हालत में  क्या इस कार्य में गृहकर्ता की श्रद्धा रहती है ? कदापि नही |वरन इन क्रिया कलापों के प्रति अश्रद्धा पैदा होती है |


पहले श्राद्ध  कार्य नहीं होते थे |अंतिम संस्कार के बाद लोग नहा धोकर घर जाते थे |अपने तरीके से शोक मनाते थे , प्रार्थना करते थे  | महाभारत के अनुसार ,श्राद्ध का उपदेश सबसे पहले अत्री मुनि ने महर्षि निमिं को दिया था |महर्षि निमि ने ही श्राद्ध की शुरुयात की |  बाद में अन्य ऋषियों ने भी अपने अनुयायियों को श्राद्ध करने का उपदेश दिया | धीरे धीरे यह चारो वर्णों के लोग करने  लगे | पहले श्राद्ध में मृत आत्मा को भोजन अर्पण किया जाता था | फिर इष्ट -मित्र अतिथियों को भोजन करांने की प्रथा शुरू हुई | कालांतर में  ज्योतिषियों ने पितरि पक्ष का भी निर्माण कर दिया जिसमें पितरों को अन्न दान अनिवार्य कर  दिया |

यह कार्य भी ब्राह्मणों  के माध्यम से करना है और उनको दान दक्षिणा देना है |

पितरो को स्मरण करके उनको श्रद्धा सुमन अर्पित करना अच्छी बात है | परन्तु यह बताना कि श्राद्ध न करने पर पितरों को यमलोक की यातनाएं भोगनी पडती है और श्राद्ध करने से अपने पुण्य के अनुसार स्वर्ग लोक, सूर्य लोक .गोलक धाम का सुख प्राप्त करते हैं | काल्पनिक लोको में पितरों के काल्पनिक सुखों का प्रलोभन देकर ,जीवित लोगों को अपार दुखों में धकेलना क्या धार्मिक कार्य है ? जो लोग धनी है, उनको तो फरक नहीं पड़ता है, परन्तु जो गरीब है,वे और गरीब हो जाते हैं |भारत में ८०% लोग अति गरीब, गरीब और सामान्य गरीब हैं | इस कु-प्रथा का सबसे अथिक पीड़ित भारत के यही ८०% लोग हैं | ये लोग अन्धविश्वासी भी हैं इसीलिए इन रीतियों का पालन अक्षरश: करते हैं |

मृत व्यक्ति के सुख के लिए जीवित व्यक्ति को प्रलोभन देकर दान दक्षिणा और  सामूहिक भोजन के लिए भ्रमित करना कहाँ तक ठीक है ? क्या ये सब  कार्य श्रद्धा का कार्य है या अश्रद्धया का कार्य  है ?



श्राद्ध और श्राद्ध भोज बंद होना चाहिए |इसके बदले श्रद्धा सभा का आयोजन होना चाहिए जिसमे इष्ट मित्र श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे | इसमें ब्राह्मणों का कोई काम नहीं होगा और न कोई दान दक्षिणा होगा  | स्वल्पाहार का आयोजन किया जा सकता है | सामर्थ्यवान यजमान चाहे तो भोज का पैसा किसी गरीब बच्चे की शिक्षा दीक्षा में खर्च कर सकते है |


कालीपद 'प्रसाद'


रविवार, 22 दिसंबर 2019

मन मोहक नारे


“हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, हम सब हैं भाई भाई”
सुनने में कितना अच्छा लगता है न? हम सब हैं भाई भाई| यही तो संविधान की आत्मा है| किंतु क्या यह नारा दिल में उतरता है या दिमाग में बैठता है? अगर यह दिल से निकलता है तो इसमें प्रेम प्रीति सहानुभूति मिश्रित होती है| और अगर यह दिमागी उपज है तो इसे भुला नहीं जा सकता | परंतु खेद की बात यह है न इन नारों में प्रेम प्रीति सहानुभूति है और न यह याद रखा जाता है| काम हो जाने के बाद भुला दिया जाता है| जैसे “ सबके हाथ सबके साथ’ भुला दिया गया | असल में यह नारे न दिमाग तक पहुंचते है न दिल तक | यह तो कमाल है दांतो के बीच में चलती जवान की है| यहीं से निकलते है और यहीं खत्म हो जाते है | सब ने अपने अपने हाथ का उपयोग करके वोट दिया | उनके साथ खड़े हुए | परंतु अब न किसी का हाथ चाहिए न साथ | गरीबी हटाते हटाते गरीब हटाने का प्रोजेक्ट बन गया | गरीब की जमीन को छीन कर उद्योगपति को दिया गया | गरीबी हट गई | आखिर इन नारों की जरूरत क्यों पड़ती है | इसका उत्तर नेता लोग बहुत अच्छी तरह समझते हैं | जैसे चावल बिखरने से कौये आ जाते हैं | भजन के नाम से भक्त आ जाते हैं वैसे ही नारे से मंदबुद्धि लोग जल्दी आकर्षित हो जाते हैं | इन नारों से देश की प्रगति तो नहीं होती परंतु अल्प बुद्धि लोगों में जोश आ जाता है और बिना समझे बुझे नारा देने वाले का जय जय कार करने लगते हैं उन्हीं को ही वोट देते हैं और बाद में पछताते हैं | 15 लाख के लालच में बैंक में खाते खुल गए लेकिन खाते मे अभी भी जीरो बैलेंस है| उम्मीद अभी भी लगी हुई हैं कि कभी ना कभी 1500000 तो आएगा ही | यह है मुंगेरीलाल के हसीन सपने | यह सपने हर पार्टी दिखाती है, बार-बार दिखाती है, परंतु सपना तो सपना ही रह जाता है कभी पूरा नहीं होता | हिन्दुस्तानी भोलीभाली जनता सपने में ही जी रही है | राजनेता उन्हें धनवान बनाने का सपना दिखा रहा है | मुल्ला ,पंडित इबादत /पूजा से जन्नत /स्वर्ग सुख का सपना दिख रहे है |भोली भली जनता द्विविधा में हैं | इसीलिए नेता उन्हें भोली भली गाय समान मानते है, उन्हें जिधर हांकों उधर जायगी |अशिक्षित, अन्धविश्वासी, ईश्वरसे भयभीत जो हैं | ईश्वर के नाम से इनसे कोई भी काम कराया जा सकता है |इसका फैदा हर मज़हब के लोग बड़ी चतुराई से उठा रहे हैं | वाह रे तथा कथित समाज के मार्ग दर्शक वाह ! विवेकानंद को आदर्श मानने वाले विवेकानंद की परछाईं से कोशो दूर हैं | गाँधी के अहिंसा में विश्वास रखने वाले हिंसा और भेद भाव फैला रहे हैं | क्या यही देश का विकास का मार्ग है ? गाँधी तेलिस्मा का उदाहरण तो देते है पर नीतियाँ उसके विपरीत क्यों बनती है ? दोस्तों ज़रा सोचिये निष्पक्ष होकर |

कालीपद 'प्रसाद'

सोमवार, 1 अप्रैल 2019

बच्चों का धर्म बिहीन पालन पोषण (Raising kids without Religion )

            प्राचीन काल में भारत में जितनी भी लड़ाइयां हुई उसके कारण  3 चीजों को माना गया है | जर, जमीन और जोरू | उसमें धर्म कहीं नहीं था | धर्म की उत्पत्ति तो बाद में हुई | सनातन धर्म जो हिंदू धर्म के नाम से जाना जाता है यह वास्तव में कोई धर्म नहीं है| यह जीवन जीने  की एक पद्धति है,तरीका है, परंपरा है, जिसे पीढ़ी दर पीढ़ी पालन करते आ रहे हैं | इस पद्धति में जब स्वार्थ के कारण भेदभाव,ऊंच-नीच, जात पात का प्रभाव चरमोत्कर्ष पर पहुंचा तब इन्हीं लोगों में से अलग होकर बौद्ध धर्म और जैन धर्म का जन्म हुआ | सनातन धर्म में जहां 33 करोड़ देवी देवताओं की कल्पना की गई है वहीं बौद्ध धर्म में  सत्य को ईश्वर  माना गया है, जो निर्विकार है निराकार है | साकार कोई ईश्वरकी अस्तित्व को बौद्ध धर्म अस्वीकार करता है | इसके  विपरीत हिंदू धर्म गौतम बुद्ध को भगवान विष्णु का अवतार मानते हैं | बौद्ध धर्म किसी 
अवतार से सहमत नहीं है | इस प्रकार धर्मों में विवाद शुरू हो गया | इन विवादों के कारण बौद्ध धर्म भारत में तो पनप नहीं पाया परंतु चीन जापान, सिंहल जैसे अनेक देशों में फल फूल रहे हैं | विश्व के 4 बड़े धर्म- हिंदू धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म हिंदुस्तान में ही उत्पन्न हुए |हिंदू धर्म के कोई सर्जक ( आरंभ कर्ता )नहीं है |बौद्ध धर्म को गौतम बुद्ध ने शुरू किया, जैन धर्म को महावीर जी ने शुरू किया और सिख धर्म को गुरु नानकजी ने शुरू किया | विदेशों में उत्पन्न हुए धर्म -क्रिस्चियन धर्म और मुस्लिम धर्म, जोरास्ट्रियन (पारसी & ईरानी ) एवं बहाई फेथ भी भारत में फलफूल रहे हैं |

               भारत में जब  विदेशी धर्म प्रवेश किया तो धर्म परिवर्तन को लेकर झगड़े होते रहे हैं|  इस समय भारत में ८  छोटे बड़े धर्म हैं | अक्सर हिंदू, मुस्लिम और क्रिश्चियन धर्म में टककर होता रहता  है | आज भारत में कश्मीर का झगड़ा हिंदू और मुसलमानों के बीच में है | उसी प्रकार बाबरी मस्जिद और राम मंदिर का मसला भी हिंदू मुस्लिम के बीच में है | शुरुआत में हर धर्म अच्छे सिद्धांत को लेकर चलते हैं परंतु बाद में जब कुछ स्वार्थी और  वास्तविक धर्म के अर्थ से अज्ञान लोग इसमें घुस जाते हैं,वहीं दंगा फसाद करते हैं | धर्म का सही अर्थ उन्हें पता नहीं है | वे धर्म और आध्यात्मिकता  में फर्क नहीं समझते |  गीता से अगर धर्म का अर्थ समझा जाए तो श्री कृष्णा अर्जुन को कुरुक्षेत्र में उपदेश देते हैं कि  हे पार्थ ! युद्ध क्षेत्र में योद्धा का परम धर्म है युद्ध करना| किससे कर रहे हैं, युद्ध का परिणाम क्या होगा, इसके बारे में सोचना नहीं चाहिए | अर्थात कर्म ही धर्म है | परिवार में पिता का धर्म पुत्रों, पुत्रियों का लालन पालन करना, उनकी रक्षा करना ही धर्म  है | उसी प्रकार परिवार में माता, पुत्र ,पत्नी का भी अलग-अलग धर्म है या कर्तव्य है |यही कर्तव्य ही मानव का धर्म है | ईश्वर को प्राप्त करना या  उसके सान्निध्य  को प्राप्त करने की इच्छा या  मोक्ष पाने की इच्छा आध्यात्मिकता है |
यह सामाजिक या सामूहिक नहीं हो सकता यह केवल व्यक्तिगत है | कोई साकार ईश्वर में विश्वास करता है, तो कोई निराकार ईश्वर पर विश्वास करता है | ऐसे भी लोग है जो  ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते | वे किसी धर्म के देव देवियों पर विश्वास नहीं करते  ना किसी धर्म में विश्वास करते हैं | इन्हें आप धर्म बिहीन लोग कह सकते हैं या  धर्मनिरपेक्ष भी कह सकते हैं | ऐसे लोग भारत में बहुत कम है | 2001 के जनगणना के हिसाब से भारत में 700000 ऐसे लोग थे परंतु 2011 के जनगणना के अनुसार इनकी संख्या  29 लाख है, जो भारत की  जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है(टाइम्स ऑफ़ इण्डिया के अनुसार ) लेकिन उम्मीद है इनकी संख्या अगली जनगणना में इससे कई गुना ज्यादा होगी | अगर  बच्चों की परवरिश बिना किसी धर्म के मानव के रूप में किया जाए तो उसका झुकाव किसी धर्म के प्रति नहीं होगा और ऐसे लोग मंदिर मस्जिद जैसे समस्याओं को सुलझाने में मददगार हो सकते हैं| ना  उनको मस्जिद में रुचि होगी न मंदिर में | उनका दृष्टिकोण ही अलग  होगा जो निश्चित रूप से मानवतावादी होगा | आजकल ऐसे बहुत सारे पेरेंट्स अपने बच्चों को रिलीजन फ्री शिक्षा दे रहे हैं | ये बच्चे बड़े होकर धर्म और आध्यात्मिकता का अंतर समझेंगे और उसके बाद किसी आध्यात्मिक समूह में अगर शामिल हो जाए तो मां-बाप को कोई आपत्ति नहीं होगी |हमारा संविधान भी इसका अनुमति देता है |अभी उनको यह आपत्ति है कि तथाकथित धर्म के रास्ते में चल कर लोग भटक जाते हैं या भटकाए जाते हैं  | ईश्वर की चिंतन मनन में भौतिक चीजों से पूजा पाठ करने की रीति-रिवाजों का कोई महत्व  नहीं है | भगवान को न दक्षिणा चाहिए  न नैवेद्य | ए सब तो पुजारी के भरण पोषण का इंतजाम है  | इसीलिए दान का महत्व बढ़ा चढ़ाकर बताया जाता
 है |  मोक्ष केबल मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि पूजा स्थल से मिल सकता है|  देवी देवता जागृत है और तुरंत फल देने वाला है |यही बताया जाता है | यही कारण है कि आज देश में जितनी शिक्षण संस्थाएं हैं  उससे ज्यादा मंदिर, मस्जिद चर्च आदि पूजा स्थल है|  जनता के  दान से इन मंदिरों में अरबों रुपए पड़े हैं जिनका उपयोग कभी भी जनकल्याण में नहीं होता है | सांसारिक लाभ या मोक्ष लाभ के भ्रम में लोग यह दान करते हैं | आज नई पीढ़ी अगर अपने बच्चों को धर्म रहित शिक्षा प्रदान करें तो वह मानवता की शिक्षा होगी | उसमें घृणा, द्वेष, ऊंच-नीच, जात-पात नहीं होगा | उनका एक ही धर्म होगा वह है मानव धर्म | हर मानव से प्रेम, दुखियों के प्रति सहानुभूति, एक दूसरे के प्रति आदर और सम्मान,समाज में सब बराबर होने का भाव होगा | धर्म के नाम से कोई लड़ाई नहीं होगी | जात के नाम से कोई लड़ाई नहीं होगी | समाज में निश्चित रूप से शांति और सद्भावना का प्रचार-प्रसार होगा |परन्तु  जिन लोगों को धार्मिक भेदभाव, जाति भेदभाव से
 लाभ मिलता रहा है, वे लोग इस नए विचार का निश्चित रूप से विरोध करेंगे और तरह-तरह के कुतर्क देंगे क्योंकि सदियों से इन्हीं भेदभाव के कारण वह समाज में सर्वोच्च स्थान पर आसीन हैं और वहां से नीचे उतरना उनको मंजूर नहीं | 

कालीपद 'प्रसाद'

सोमवार, 7 नवंबर 2016

चाल,चलन,चरित्र

                    आज देश में चारित्रिक अराजकता है।नव युवक/युवती  राजनेता , सामजिक नेता  को आदर्श मान कर अपना चरित्र  निर्माण करते हैं। परन्तु आज देश में कोई भी व्यक्ति ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है जिसे नई पीढ़ी आदर्श मान सके। पहले स्कूलों में चरित्र निर्माण के उद्देश्य से नैतिक शिक्षा  दी जाती थी, जिसमे महान  व्यक्तियों की जीवनियाँ ,कुछ मूल्यपरक कहानियाँ होती थीं।उस से बच्चों में जीवन के  उपयोगी मूल्यों का ज्ञान होता था और वे उन मूल्यों  को अपने जीवन में पालन कारने की प्रयत्न करते थे। परन्तु  आज मूल्यपरक शिक्षा की हल्ला तो होती है परन्तु कार्य नहीं होता। आज कल किसी ने कुछ कहा उसको लेकर अलग अलग व्यक्ति .अलग अलग अर्थ निकल  रहे है। इसे देखकर बचपन में पढ़ी हुई एक कहानी याद आ गई।
                    प्राचीन काल में प्रकाण्ड ज्ञानी एक महर्षि थे।उनके ज्ञान की चर्चा देव ,मानव ,दैत्य, सभी में  होती  थी।सभी उनसे शिक्षा प्राप्त करने के लिए आते थे।उनका नाम था महर्षि यज्ञवल्क। एक दिन  महर्षि यज्ञवल्क के पास  एक- एक कर तीन बालक शिक्षा ग्रहण करने  के लिए आये। पहला बालक एक देव कुमार था। देव कुमार महर्षि के पैर छू कर प्रणाम किया। .तत्पश्चात हाथ जोड़कर कहा ,"गुरुदेव ! मै आपसे शिक्षा प्राप्त करने  की अभिलाषा लेकर आया हूँ। आप मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर मुझ पर अनुकम्पा करें । ".
                   देव कुमार की आग्रह को देख कर महर्षि ने कहा "तथास्तु ". और अन्य शिष्यों ने देवकुमार को लेकर गुरुदेव द्वारा निर्दिष्ट स्थान पर उसको पहुचां दिया। उसके रहने और पड़ने की ब्यवस्था कर दी।
                   थोड़ी देर बाद आया एक मानव बालक।उसने भी महर्षि  के पैर छू कर प्रणाम किया और कहा, "गुरुदेव मैं आपसे शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा लेकर आया हूँ।आप मुझे शिष्य बनाकर मुझ पर कृपा करे  " महर्षि ने पूर्ववत सर  हिलाया और कहा ,"तथास्तु ". तब मानव पुत्र भी यथा स्थान जाकर अपना अध्ययन शुरू कर दिया ।
                   अंत में  आया एक दानव पुत्र। उसने महर्षि को प्रणाम करने बाद कहा ,"गुरुदेव मैं आपका शिष्य बनना चाहता हूँ। आप मुझे शिष्य के रूप में ग्रहण करें। गुरु देव ने उसको भी "तथास्तु " कहा और तीनो शिष्य अध्ययन में रत हो गए।
                   देवता में बुद्धि तीक्ष्ण  होती है। कोई भी विषय को हो जल्दी समझ जाते है। यहाँ भी वही  हुआ। कुछ दिनों के बाद सबसे पहले देवकुमार अपनी पढाई बहुत जल्दी समाप्त कर महर्षि के पास आकर प्रणाम किया और कहा , "गुरुदेव मैंने आपके दिए हुए  वेद , पुराण आदि सब शास्त्रों का अध्ययन पूरा कर लिया है। आप मुझे उपदेश दीजिये।"
                   गुरुदेव मुस्कुराते हुए देवकुमार को देखा और कहा ," द ".और चुप होगये। देव कुमार को कुछ भी समझ में नहीं आया । वह सोच रहा था, गुरुदेव बहुत अच्छी अच्छी बातें बताएँगे, जिसे वह ध्यान लगाकर सुनेगा और जीवन में उसका पालन करेगा।लेकिन यह क्या गुरुदेव के मुहँ से केवल एक शब्द "द " और कुछ नहीं? लेकिन दुरुदेव के मुहँ से कोई निरर्थक शब्द नहीं निकल सकता ,यही सोचकर वह   "द "  का अर्थ समझने की कोशिश करने लगा। थोड़ी देर सोचने के बाद उसने कहा ,"गुरुदेव मैं आपके उपदेश  का अर्थ समझ गया।"
 गुरुदेव ने कहा ,"हूँ  .  ....., बताओ।"
  देवकुमार ने कहा ,  " 'द'  का अर्थ 'दमन'। "
गरुदेव ने "हाँ " में सिर हिलाया और देवकुमार प्रणाम कर प्रस्थान किया।
                    मनुष्य में देवतायों से कम परन्तु दैत्यों से अधिक बुद्धि होती है।इसलिए मानव पुत्र ने भी जल्दी ही अपनी पढाई समाप्त कर गुरुदेव के पास आया, प्रणाम किया और निवेदन किया ," गुरुदेव मैंने सभी वेद पुराण आदि शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है, मुझे उपदेश दीजिये।"
गुरुदेव ने पूर्ववत मुस्कुराया और कहा ,"द " और चुप हो गए।  मानव को आश्चर्य हुआ।सोचने लगा - गुरुदेव का यह कैसा उपदेश? परन्तु यही सोचकर की दुरुदेव के मुहँ से जो निकला है उसका कुछ तो अर्थ होगा ,वह सोचने लगा। कुछ देर बाद उसने कहा , "गुरुदेव आपके उपदेश का अर्थ मेरे समझ में आ गया है।"
गुरुदेव ने कहा ,"बताओ ",
मानव ने कहा ," 'द' का अर्थ है 'दान' "
गरुदेव ने फिर हाँ में सिर हिलाया और मानव प्रणाम कर आशीर्वाद लिया  और चला गया।
                  अन्त में दानव आया।उसने भी प्रणाम करने के बाद कहा," गुरुदेव मुझे उपदेश दीजिये।"
गुरुदेव ने वही शब्द फिर से कहा , "द ".
दानव भौंचक्का रह गया।उसकी मोटी बुद्धि में कुछ नहीं आया।  यह सोचकर की गुरुदेव जो कुछ बोलते हैं उसका कुछ न कुछ अर्थ जरुर होता है। वह सोचता रहा ,अंत में उसने "द " का अर्थ समझ लिया। उसने ख़ुशी ख़ुशी कहा, "गुरुदेव मुझे आपके उपदेश का अर्थ समझ में आ गया।"
गुरुदेव ने कहा ,"बताओ "
" 'द ' का  अर्थ है  'दया' " दानव  ने कहा।
गुरुदेव ने  मुस्कुराया । दानव प्रणाम किया और चला गया।
                उन तीनो शिष्यों के जाने के बाद आश्रम में उपस्थित अन्य शिष्यों ने  उत्सुकता से प्रश्न किया , "गुरुदेव आपने तीनों को एक ही उपदेश दिया। परन्तु उन तीनों ने अलग अलग उतर दिया, दमन ,दान और दया, और अपने तीनो उत्तर को सही बताया यह कैसे हो सकता है?
गुरुदेव ने कहा, "वत्सों किसी भी शब्द का एक अर्थ नहीं होता ,अनेक अर्थ होते है। यह व्यक्ति के सोच, उसकी समझ ,उसका परिवेश और जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण ही निर्धारित करता है कि वह कौन सा  अर्थ समझेगा। देश , काल, परिवेश के अनुसार शब्द का अर्थ बदलता है।" गुरुदेव ने आगे कहा ," देवता स्वभाव से भोग विलासी होते हैं। इन्द्र सुख के लिए कुछ भी कर सकते है।यही इन्द्रियां उन्हें सुख देती है और दुःख भी। इसलिए देवकुमार ने सोचा कि गुरुदेव ने मुझे इन्द्रियां दमन करने के लिए कहा। इसलिए उसने 'द ' का अर्थ 'दमन' बताया।"
 मानव के बारे में गुरुदेव ने बताया ," मानव स्वभाव से संचयी होते हैं। उसे जितना चाहिए  उससे ज्यादा संग्रह करना चाहता है। जीवन भर इतना संग्रह कर लेता है कि मृत्यु तक उसका उपयोग भी नहीं कर पाता।  इसलिए मानव  ने सोचा कि जिसका हम उपयोग नहीं कर सकते उसका 'दान' करने के लिए गुरुदेव ने कहा है।यही सोचकर मानव ने 'द ' का अर्थ 'दान' कहा है।"
                 "दानव स्वभाव से क्रूर ,निर्दयी होते है।मारपीट में विश्वास  रखते हैं। "द " से उसने सोचा कि गुरुदेव ने उसे दुसरो पर "दया " करने के लिये कहा है। इसलिए उसने 'द ' का अर्थ 'दया ' बताया। "

इस प्रकार महर्षि यज्ञवल्क ने शिष्यों को समझाया कि  परिवेश, पारिवारिक संकृति बच्चों के चरित्र निर्माण, उसकी सोच को दिशा देने में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाते  हैं।


(अगले अंक में देखिये: - हमारे देश में अलग अलग परिवेश से आये नेता गण के चाल ,चलन , चरित्र  "द " के संदर्भ में।)

कालीपद "प्रसाद "

                    




                
















शुक्रवार, 5 अगस्त 2016

प्रायश्चित्त,

                                             प्रायश्चित


          हीरानंद की बेटी रमला की शादी थी | गाँव के सभी लोग शादी में आमंत्रित थे |उत्सुकता से सब लोग बारात का इंतज़ार कर रहे थे |थोड़ी देर में बारात आ पहुँची | दूल्हा घोड़ी पर बैठा था और बाराती बाजे के साथ साथ थिरक रहे थे |द्वार पर स्वागत के लिए लड़की वाले आरती की थाली लेकर खड़े थे |दूल्हा जब द्वार पर पहुँचा तो गाँव के लोग दूल्हा के साथ खड़े एक चेहरे को देख कर भौंचक्के रह गए |वह व्यक्ति था शिवानन्द |केवल यही गाँव नहीं,आसपास के गाँव के लोग भी जानते थे कि हीरानंद और शिवानन्द के परिवारों में कट्टर दुश्मनी का रिश्ता है | कभी ये दोनों जिगरी दोस्त हुआ करते थे |अपनी दोस्ती को सदा कायम रखने के लिए दोनों ने मिलकर रमला की शादी शिवानन्द के बडे बेटे सुरेश से कर दी थी | रमला उस समय पाँच साल की थी और सुरेश सात साल का | विवाह के बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं था | बड़े हो कर सुरेश जब पढने शहर गया तो उसने कालेज में ही अपनी एक सहपाठिनी से प्रेम विवाह कर लिया और वहीँ शहर में ही रह गया | उस समय से दोनों परिवारों में दुश्मनी हो गई थी |

           आज शिवानन्द को बाराती के साथ देख कर गाँव वालों ने उसे घेर लिया और पूछा, “”आप यहाँ क्यों आये हैं?” गांववालों का आक्रोश देखकर हीरानंद आगे आया और शिवानन्द को गले लगा लिया फिर गाँव वालों को सम्बोधित करते हुए कहा, “भाइयों शिवानन्द आज मेरे साथ यहाँ अपने कुकर्म का प्रायश्चित करने आये है | हमने बिना समझे  बाल विवाह जैसे कुरीति को प्रश्रय दिया था और दोनों बच्चो की शादी कर दी थी | वे हम दोनों की गलती थी | शिवानन्द भी कभी अपने आप को क्षमा नहीं कर पाया और मुझसे सलाह करके ही उसने इस शादी की जिम्मेदारी अपने कन्धे पर उठाई | यह हम दोनों के कुकर्म का प्रायश्चित हैं|”


कालीपद 'प्रसाद'

शनिवार, 14 मई 2016

कोल्हू के बैल





                            एक कस्बे में एक साहूकार रहता था।उनके तीन बेटे थे। साहूकार ने अपने जीवन में गरीबी के दिन देखा था । एक एक पाई के लिए खून  पसीना  एक करना पड़ता था।  उसने यह सोच लिया था कि वह अपने बच्चों को इस गरीबी से मुक्ति दिलायेगा ।  इसलिए अपनी छोटी सी  दूकान से जो भी अर्जित होता था उसमें से केवल आधा ही अपने घर के खर्च के लिए उपयोग करता था बाकि सब अपने बेटों की पढाई लिखाई  के लिए जमा करके रखता था। बच्चे बड़े होते गए। उनके रहन- सहन , पढ़ाई  -लिखाई के खर्चे भी बढ़ते गए। साहूकार ने अपने संचित कोष से सबकी मांग पूरी की।सबको अपने अपने मन पसंद शिक्षा प्राप्त करने में पूरा सहयोग दिया, इस उम्मीद के साथ कि " बच्चे बड़े होकर अपने अपने पैर पर   खड़े हो जायेंगे।किसी को किसी के  सामने हाथ फ़ैलाने की जरुरत नहीं होगी। सब अपने अपने परिवार में खुश रहेंगे।  तीनो भाइयों के बाल बच्चे होंगे , हमारा एक भरा पूरा परिवार होगा। उस परिवार का ज्येष्टतम सदस्य होंगे हम, मैं और  मेरी पत्नी । हमें खूब आदर ,सम्मान मिलेगा। "                      
              बड़ा बेटा मोहित एल .एल .बी . की पढ़ाई समाप्त कर एडवोकेट बन गया। जिला अदालत में  प्राक्टिस करने लगा .वहीँ एक घर किराये पर  लेकर रहने लगा। शनिवार को घर आ जाता था और सोमवार को चला जाता था । इसके बाद दूसरा बेटा रोहित बी इ  पूरा करते ही उसे नौकरी मिल  गई। वह भी बाहर दुसरे शहर चला गया। तीसरा बेटा  रोनित का एम् बी बी एस  पूरा होने पर शहर में क्लिनिक खोल लिया। तीनो शनिवार को माँ बाप से मिलने घर आते और  कोई रविवार या कोई सोमवार अपने अपने कार्यस्थल पर पहुँच जाते।
                       साहूकार ने अब अपने बेटों के विवाह  के लिए योग्य पात्रियों का खोज करने लगा। इसमें उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं हुई। उन्होंने एक एक कर तीनो बेटों की शादी कर दी। सभी बहुएं अपने अपने पति के साथ चली गई तो घर में रह गए साहूकार  और धर्मपत्नी सविता। जब सब चले गए तो साहूकार उदास हो गए परन्तु यह सोचकर कि बच्चे काम के लिए बाहर तो जायेंगे ही ,घर मे  बैठे तो नहीं रह सकते ,इसमें दुःख की क्या बात है ? वे लोग शनिवार और दुसरे छुट्टियों में तो आयेंगे ही ,तब जी भरके सबसे बात करेंगे।
                        शाहुकार को भरपूरा परिवार अच्छा लगता था।उसने उम्मीद किया  था कि  बच्चे अब उनसे आराम करने के  किये लिए  कहेंगे। . चलकर उनके साथ रहने के लिए कहेंगे।  अब दिन भर दूकान में बैठकर बूढी हड्डी में दर्द होने लग जाता है। शामको ठीक से खड़ा भी नहीं हो  पाता है । परन्तु हाय रे नियति ! साहूकार की आराम की बात  तो दूर , महीनो बीत जाता  कोई बेटा झांक कर  भी  नहीं देखता, न फोन पर हालचाल  पुछता।सब अपने अपने दुनिया में मस्त हो गए। साहूकार की पत्नी जब कभी फोन करती तब एक ही जवाब मिलता ,"काम बहुत है इसलिए नहीं आ पा रहे  है।"सभी लोग काम में इतना व्यस्त हो गए कि  माँ बाप के हालचाल पूछने का भी  समय नहीं है, यह बात साहूकार को हजम नहीं हुआ।वह कुछ नहीं कहता ,मन मसोस कर रह् जाता।उसे अकेलापन महसूस होने लगा।वह अवसाद ग्रस्त होने लगा।
                         दूकान अक्सर बंद रहता था क्योकि साहूकार की मानसिक पीड़ा और बुखार ने उन्हें बहुत कमजोर   बना दिया था।जब शाहूकार शय्याशायी हो गए तब साहूकार की पत्नी सबिता  ने छोटे बेटे रोनित को फोन कर  बताया कि उसके पिता बीमार है। रोनित पिता को देखने आया  और कुछ  दवाइयाँ देकर माँ को  कहा , "इन दवाइयों को सुबह, दोपहर और शाम खाना खाने के बाद खिलाओ, आराम हो जाएगा।खून के परिक्षण के बाद पता चलेगा कि बुखार का कारण  क्या है। रोनित अपने क्लिनिक लौटकर अपने दोनों भाइयों को फोन से पिताजी के बिमारी के बारे में बताया। यह भी बताया कि अगले रविवार को वह फिर घर जा रहा है।
                      रविवार को सबसे पहले रोनित अपनी पत्नी  के साथ आया। पिताजी का ब्लोड़  रिपोर्ट भी साथ लाया था। उसने पिता जी को बताया की रक्त की कमी है। साथ में उसने दवाइयाँ भी लाया था। उसे कब कब खाना है यही बता रहा  था  अभी मोहित और रोहित भी आ पहुचे। दोनों ने रोनित से  पिताजी के बारे में पूछा। रोनित ने बताया कि  उनको खून की कमी के साथ स्नोफिलिया भी है।  इसकी वजह तकलीफें  ज्यादा है परन्तु अभी पहले से अच्छा है। साहूकार को अच्छा लगा कि उनकी बीमारी की बात सुनकर तीनों बेटे दौड़कर उन्हें देखने आये लेकिन यह ख़ुशी ज्यादा देर तक रह नहीं पाई। . 
                         रोनित  ने कहा ,"पिताजी को आराम करने दो, आप सब पास  वाले कमरे में जाकर बैठो।  सब लोग दुसरे कमरे में जाकर बैठ गए। सभी बहुएं भी उपस्थित थी। उन सबको मुखातिब होकर साहूकार की पत्नी   ने कहा ,"बेटे अब तुम्हारे पिताजी दूकान ठीक से चला नहीं पा रहे है। इस उम्र में  दिन भर  एक जगह बैठे रहना कष्ट दायक है। हाथ पैर फुल जाता है। कमर के दर्द से परेशान हैं। उनकी इच्छा है कि वह दूकान बंद कर दें और तुम लोगो के पास बारी बारी से रहे। तुम लोग क्या कहते हो।"
                        इसपर रोहित ने कहा ,"मैं तो शहर में एक कमरा वाला घर किराया में लेकर रहत हूँ। वहां तो जगह  नहीं है और दो या तीन कमरे वाला  घर का किराया इतना ज्यादा है कि  मैं ले नहीं सकता. इसलिए आपलोग भैया के पास या रोनित के पास रह सकते हैं। "
                  मोहित, जो एडवोकेट है, कहने लगा ," मेरा प्राक्टिस ठीक से चल नहीं रहा है। इसलिए हमेशा कडकी रहती है। रोनित का क्लिनिक अच्छा चल रहा है।"  रोनित दोनों भाइयों की ररफ देखा फिर बोला ,"भैया ,मेरा क्लिनिक तो अभी अभी शुरू हुआ है ,पास में बहुत पुराने क्लिनिक हैं। लोग ज्यादा उधर जाते हैं। अभी मुझे पैर जमाने में समय लगेगा।"  
                   साहूकार पास के कमरे में लेट कर बच्चों की सारी  बातें सुन ली।उनको बड़ा दू:ख हुआ  कि  जिन बच्चों के लिए सभी सुख सुविधायों को त्यागकर उनके भविष्य संवारने लगे थे ,वे आज उनकी जिम्मेदारी लेने  के लिए तैयार नहीं है , सब अपनी अपनी लाचारी बता रहे हैं। बच्चों की रवैया देखकर दिलको अचानक , अप्रत्याशित  गहरी चोट लगी। दिल  रो उठा, आँखों  के कोने से दो बूंद आंसू आहिस्ता आहिस्ता लुडक गए। साहूकार के आँख पर पुत्र मोह की जो पट्टी बंधी थी ,मन को कड़ा  करके उसने उसे हटा दिया। वह धीरे धीरे उठ बैठा और आवाज देकर सबको अपने कमरे में बुला लिया।
              जब सब लोग आ गए तब साहूकार ने कहना शुरू किया ," बेटे तुम सबको बहुत धन्यवाद !मेरी बीमारी की बात सुनकर तुम लोग अपने अपने काम धंधे छोड़कर मुझे देखने आये। तुम लोगो को हमारे बारे में चिंता करने की जरुरत नहीं है। तुम्हारी माँ ने जो कुछ कहा उसपर ध्यान मत देना। माँ ,बाप तो होते ही कोल्हू के बैल जैसे।कोल्हू के बैल को जब घानी  में जोता  जाता है तब उसके आँखों पर काली पट्टी बाँध दी जाती है ताकि  वह यह देख न पाए कि कितना तेल निकला है क्योंकि उसके दिल में भी तेल पीने की इच्छा होती है। इसलिए तेली उसके आंखों की पट्टी खोलने के पहले तेल अन्य पात्र में स्थानांतरित कर देता है।जब बैल की आँख की पट्टी खुलती है तो वह देखता है पात्र में तो तेल नहीं है या नहीं के बराबर है।इतना मेह्नात् करने  के बाद भी विन्दुमात्र तेल भी नहीं निकला ........... ?'"
                साहूकार एक लम्बी स्वांस छोड़कर फिर कहना शुरू किया ,"माँ बाप के आँखों पर भी पुत्र-पुत्री पेम की पट्टी बंधी  रहती है।प्यार ,मुहब्बत में वे यह सोचते रहते है की ये बच्चे ही तो हैं जो हमें वृद्धावस्था में प्यार देंगे ,सम्मान देंगे,बुढ़ापा का लाठी बनकर हमें सहरा  देंगे।  परन्तु आँखों  की पट्ठी जब खुलती है तो पता लगता है कि  जिसे वे प्यार समझ कर बच्चों में लुटा रहे थे  ,वह प्यार है ही नहीं। बच्चे तो उसे माँ बाप का फर्ज मानकर भूल जाते है। बच्चों के पास माँ बाप से बात करने का न तो समय है ,न दिल में प्यार या आदर की भावना।इस हालत में माँ बाप का कर्मफल का पात्र खाली के खाली रह जाता है .न उसमे किसी का प्यार होता है ,न आदर सम्मान ,होता है केवल अवहेलना और एकाकीपन। हुए न माँ बाप कोल्हू के बैल ?"  
                     खैर ,अच्छा  लगा  ,तुम लोग आये और ईश्वर ने  ही तुमलोगों के माध्यम से मेरी आँखों की पट्टी खोल दी। वास्तव में "आशा ' "उम्मीद" नामक  बिमारी ने मुझे जकड लिया था। है तो यह मानसिक बीमारी लेकिन मेरे मन के साथ साथ शरीर को  भी  बहुत कमजोर  और  पंगु  बना दिया था। मन से जब मैंने  इन बिमारियों को निकाल बाहर फेंका तो मुझे अच्छा लगने लगा है। काम करने का उत्साह पैदा हो रहा है। नये  सिरे से  जिंदगी जीने की इच्छा पैदा हो रही है।  तुम लोग हमारी चिंता मत करो। जाओ अपने अपने काम में लग जाओ। कभी कोई जरुरत होगी तो हम तुम्हे बता देंगे। अब मुझे थोडा आराम करने दो।" कहकर साहूकार लेट गया। 
                 बड़ा बेटा  मोहित कुछ कहना चाहता था परन्तु  डा .रोहित ने इशारे से मना  कर दिया और सबको बाहर जाने के लिए कहा। धीरे धीरे सब निकल कर पास वाले कमरे में जाकर बैठ गए। कमरे में शांति छाई हुई थी। किसी ने कुछ नहीं कहा। बच्चों को अपनी गलती का एहसास हो चूका था परन्तु क्या करे समझ नहीं पा रहे थे। माँ ने बच्चों से कहा ,"तुम लोग अभी जाओ ,बाद में मैं तुम्हारे पिताजी से बात करुँगी। बच्चों ने  माँ से वादा किया की वे अब हर सप्ताह बारी बारी आया करेंगे और पुरे दिन उन  लोगों के साथ रहेंगे।
                     साहूकार के गृहस्थी में फिर से एकबार खुशियाँ  दस्तक देने लगी थी। अब हर शनिवार कोई बेटा   घर आ जाते थे  और पूरा रविवार उनके साथ बिताते थे । साहूकार की एकाकीपन   दूर होने लगा। वह खुश रहने लगा। साहूकार दूकान में एक नौकर रख लिया था । लेन देन ,  हिसाब किताब सब वही  करता  था। साहूकार केवल पैसा लेने का काम करता था । सप्ताह में एक दिन वह वृद्धाश्रम जाकर सभी आश्रमवासी का  एक दिन का भोजन का  प्रबंध दूकान के आमदनी से करने लगा।आश्रम वासियों से घुलमिल कर बात करने में शाहुकार को बहुत आनंद आता था।  शाम को जब पति पत्नी  घर लौट आते तो उन्हें मन की  शांति मिलती  यह सोचकर कि यह काम "आशा -उम्मीद" से परे है इसलिए इसमें  न दू:ख है न  धोखा होने की कोई भय है।


"आशा -अपेक्षा -उम्मीद ", जब पूरा नहीं होता  तो दू:ख् होता है। इनसे जो मुक्त है वह सुखी है।          



रचना :कालीपद "प्रसाद"
सर्वाधिकार सुरक्षित
   
   

                      
   

शनिवार, 30 अप्रैल 2016

मजदूर दिवस !


 मजदूर दिवस !

मई महीने के पहला दिन को मे डे के रूप में मनाया जाता है | इसे “अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस” या केवल “मजदूर दिवस” भी कहते हैं | १८६० से ही १० से १६ घन्टे की कार्यावधि एवं कार्य क्षेत्र की प्रतिकूल परिस्थिति के विरुद्ध ८ घन्टे प्रतिदिन कार्यावधि और कार्य क्षेत्र की बेहतर परिस्थिति की माँग उठती रही थी | परन्तु इसकी स्वीकृति यु एस में १८८६ में मिली | पहली मई १८८६ को यु एस के १३००० औद्योगिक संस्थानों से तीन लाख से भी अधिक लोग काम छोड़कर मई दिवस मनाने चले गए | सिकागो में ४०००० लोग हड़ताल पर बैठ गए | तब से मई दिवस मनाये जाने लगा | अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पहली मई (First May ) को मनाया जाता है परन्तु यु एस में सितम्बर में मनाया जाता है |
       वास्तव में यह मजदूर ही है जिसके खून पसीने के बल पर दुनिया प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रही है | चाहे यु एस का व्हाइट हॉउस हो, या बकिंघम पैलेस हो , या फिर ताजमहल या राष्ट्रपति भवन हो ,इन सबके हर ईंट, हर पत्थर मजदूरों के पसीने से भीगा हुआ है | अगर ये इमारतें प्रगति के मापदण्ड हैं, तो इस प्रगति का प्रमुख श्रेय इन मजदूरों को जाना चाहिए | समाज को उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए| किन्तु अकृतज्ञ शाहजहाँ ने तो उन मजदूरों के हाथ कटवा दिये थे ताकि वे दूसरा ताजमहल न बना सके | यह स्वार्थ और अकृतज्ञता का पराकाष्ठा है | आज भी मजदूरों से ८ घन्टे से ज्यादा काम कराया जाता है परन्तु उन्हें पूरी मजदूरी नहीं दी जाती है | शहरी क्षेत्र में हालत थोडा सुधरी है परन्तु ग्रामीण क्षेत्र में मजदूरी पूरी नहीं मिलती | बिहार और झाडखंड जैसे राज्यों से ऐसी खबरें आये दिन समाचार पत्रों में पढने को मिलती है |
       देश की उन्नति में मजदूरों का योगदान अतुलनीय है | खेत खलिहानों में मजदूर, सड़क निर्माण में मजदूर, गृह निर्माण में मजदूर, औद्योगिक संस्थानों के उत्पादों में मजदूर, मजदूर का कार्यक्षेत्र असीमित है| उनकी महता भी असीमित है | सबसे बड़ी बात यह है कि देश निर्माण के हर क्षेत्र में पहला ईंट और आखरी ईंट वही रखता है, परन्तु कभी घमंड से यह नहीं कहता है कि मैं देश सेवा करता हूँ या मैं राष्ट्र भक्त हूँ | उसका समर्पित भाव ही बता देता है कि वह राष्ट्रभक्त है और राष्ट्रवादी भी | उसके विपरीत नेता और अधिकारी काम के लिए मोटी तनख्वा तो लेते ही हैं, साथ में बड़े बड़े घपले करते हैं, |अरबों रुपये लूटकर अपने तिजोरी भर लेते हैं और देशसेवा और देश भक्ति का दावा करते हैं |
      आजकल “राष्ट्रवादी” शब्द का प्रयोग बहुत ज्यादा हो रहा है | एक दो चुने हुए नारा लगा दिया और खुद को स्वयं ही राष्ट्रवादी घोषित कर दिया | जिसने वह विशेष नारा नहीं लगाया, उसे राष्ट्र विरोधी घोषित कर दिया | अपनी आवाज को बुलंद करने के लिए जुलुश निकाला और राष्ट्र की संपत्ति (बस, भवन इत्यादि ) को नुक्सान पहुंचाया| उनसे ज़रा कोई पूछे कि मजदूर जो कभी कोई नारा नहीं लगाता है, परन्तु राष्ट्र की संपत्ति निर्माण में अपना खून पसीना एक कर रहे हैं, वे सब मजदूर राष्ट्रवादी  हैं या नारा लगाकर राष्ट्रीय संपत्ति को हानि पहुँचाने वाले राष्ट्रवादी हैं ? नारा लागाने से कोई राष्ट्रभक्त नहीं बन जाता है और ना लगाने वाले देशद्रोही नहीं बन जाता है | जो सच्चे मन से देश के निर्माण कार्य में योगदान देते हैं, वही सच्चा देशभक्त है ,वही राष्ट्रवादी है | हमारे मजदूर ही सही मायने में राष्ट्रभक्त है, सच्चा राष्ट्रवादी है |
          जय मजदूर ! जय भारत !!


कालीपद ‘प्रसाद’

सोमवार, 27 जुलाई 2015

इंसान ईश्वर को क्यों पुजता है ?





भूल जाते है इन्सान कि मृत्यु अटल है
हर कोई यहाँ मृत्यु की पंक्ति में खड़ा है
क्रमागत मृत्योंमुखी है किन्तु इतना धीरे
आभास नहीं होता ,यही तो आश्चर्य है | 

हाँ ,इंसान को पता नहीं लगता कि कब वह मृत्यु के द्वार पहुँच गया |जिंदगी मौज मस्ती में बिता देता है ,दूसरों को मरते देखकर भी नहीं सोचता कि उसे भी एक दिन इस दुनिया को छोड़कर जाना है  |
महाभारत में यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा था,”दुनियाँ में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?”
युधिष्ठिर का जवाब भी यही था ,”लोग दुसरे को मरते हुए देखते है परन्तु यह नहीं सोचते कि उसे भी एक दिन मरना होगा और बेफिक्र होकर अपने जीवन में मस्त रहते हैं| यही सबसे बड़ा आश्चर्य है |“
यक्ष तो संतुष्ट हो गया था इस जवाब से ,किन्तु इंसान के मन में झांककर अगर देखें तो शायद यह उत्तर सही नहीं था | इंसान कभी भी मृत्यु के प्रति बेफिक्र नहीं रहा है | वह बेफिक्र होने का दिखावा करता है |भय को छुपाने की कोशिश करता है | उसे हर घडी मृत्यु का भय सताता है |  मृत्यु की भय से उसे कभी भी मुक्ति नहीं मिली | कभी यह दबा रहता है कभी उभर कर ऊपर आ जाता है तब उसके मन,प्राण ,शरीर में कम्पन उत्पन्न करता है | वह उस भय से बचने के लिए किसी की तलास करता है जो उसे मृत्यु के भय से बचा सके | वह किसकी तलास करता है ? कौन उसको मृत्यु के हाथ से बचा सकता है ? उसे नहीं पता | उस अनजान व्यक्ति को इंसान ने ईश्वर ,अल्लाह, गॉड के नाम से पुकारा | अगर मृत्यु नहीं होती तो इंसान ईश्वर ,अल्लाह, गॉड को याद नहीं करते,न उसको पूजते और न मंदिर,मस्जिद ,चर्च,गुरुद्वारा बनाते | यह मृत्यु का डर ही है जिसके कारण ईश्वर का अस्तित्व है | ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए मंदिर,मस्जिद,चर्च,गुरुद्वारा बनाये गये | वो इनसान जिसे मौत से डर नही लगता ,वह न मंदिर जायगा न भगवान को पुजेगा | जब तक मृत्यु का भय है तब तक ईश्वर की पूजा होती रहेगी और मंदिर मस्जिदे बनते रहेंगे | अत: यह भय ही है जो इंसान जो भगवान के शरण में जाने के लिए मजबूर कर देते हैं |
         मौत तो प्रत्यक्ष है ,परन्तु मौत से बचाने वाले भगवान अप्रत्यक्ष है , यह एक रहस्य है |इस रहस्य से जिस दिन पर्दा हट जायगा उस दिन मंदिर,मस्जिद जैसे देवस्थान का महत्व भी घट जायगा |  ईश्वर जब सामने होंगे तो मंदिर की जरुरत क्या रहेगी ? पण्डे ,पुजारी ,ज्योतिषों,मठाधीशों के धंधे बंद हो जायेंगे |
         मनुष्य में सोच है ,यही भय उत्पन्न करता है |पशु पक्षी में मनुष्य जैसा सोच नहीं है | इसीलिए वे हमेशा भयभीत नहीं रहते हैं | आपातकालीन खतरे का भय है ,प्राण बचाने के लिए छटपटाते है किन्तु यह क्षणिक है | मनुष्य सदा भयभीत रहते हैं | प्रश्न उठता है ,- आखिर यह भय क्यों है ? गीता में कहा गया है ,” जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग कर नया वस्त्र धारण करता है वैसे ही आत्मा पुराना शरीर त्यागकर नया शरीर धारण करती है |”
इंसान इस बात को सुन लेता है, पढ़ लेता है, परतु उस पर पूरा आश्वस्त नहीं हो पाता है|  पुराना वस्त्र  त्याग कर नया वस्त्र धारण करने में उसे डर नहीं लगता क्योंकि नया वस्त्र के बारे में वह सब कुछ जानता है ,वह निश्चिन्त रहता है | किन्तु पुराना शरीर छोड़ने के बाद उसे नया शरीर मिलेगा या नहीं, इसके बारे में उसे कोई निश्चित जानकारी नहीं है | इस शरीर को छोड़ने के बाद वह कहाँ रहेगा ? कौनसा शरीर मिलेगा ? मिलेगा या नही मिलेगा ?  कुछ भी पता नहीं | ये सब अज्ञानता के अन्धकार में छुपा है और इस अन्धकार में उसे धकेल देती है मौत | इस अनिश्चितता  के कारण मृत्यु से इंसान को डर लगता है | यदि उसे मृत्यु के
पहले और बाद में होनेवाली हर घटना की जानकारी मिल जाय तो शायद वह ईश्वर को याद करना भी भूल जाय | हो सकता है उस समय भगवान् की अवधारणा बदल जाय |  हर हाल में मृत्यु का भय ही मनुष्य को भगवान के शरण में ले आता है |

कालीपद ‘प्रसाद’                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                  

बुधवार, 22 जुलाई 2015

मानव अस्तित्व खतरे में !





मानवविज्ञानी एवं वैज्ञानिकों का मत है - पृथ्वी की उत्पत्ति के लाखों वर्ष बाद पृथ्वी में जीव की उत्पत्ति हुई |महुष्य की उत्पत्ति बहुत बाद करीब चालीश लाख साल बाद हुई वो भी होमो (Homo) के रूप में | परन्तु आधुनिक मनुष्य जिसे Homo Sapiens कहते हैं, उसकी उत्पत्ति करीब २००.००० वर्ष पहले हुई थी, परन्तु मनुष्य के शारीरिक,मानसिक और व्यवहारिक क्रमिक विकास ४०-५०,००० वर्ष पूर्व शुरू हुई | इतने लम्बे समय के बाद मनुष्य अपने आपको जीव में सर्वश्रेष्ट मानते है |यह सच भी है, लेकिन आज का मनुष्य का इतिहास इतना पुराना नहीं है | भारत को ही ले लिया जाय तो वैदिक काल से पहले का कोई प्रमाणित/विश्वसनीय इतिहास उपलब्ध नहीं है | इससे यही कहा जा सकता है कि भारत में आधुनिक मनुष्य का आगमन करीब ५००० साल पूर्व हुआ था |
रामायण, महाभारत में ज्ञान, विज्ञानं, आग्नेय अस्त्र, वरुण अस्त्र, वायु अस्त्र, विमान आदि का उल्लेख है |प्रश्न उठता है क्या वास्तव में वे अस्त्र और विमान मौजूद थे या यह केवल रचनाकार की काल्पना है? क्या वाणों से आग निकलती थी? पानी गिरता था? हवा चलती थी? या अतिशयोक्ति है? इसके प्रबल समर्थकों का उत्तर होगा हाँ ये सब थे पर नष्ट हो गए| अगर उनकी बात मान ली जाय तो फिर प्रश्न उठता है कि कैसे नष्ट हो गए? इससे सम्बंधित ज्ञान की पुस्तकें कहाँ गई? इसके उत्तर में  समर्थक चौराहे पर खड़े नज़र आते हैं| कौन सा जवाब दें समझ में नहीं आता है| एक तरफ श्रीकृष्ण को भगवान मानते है और मानते हैं कि धर्म की रक्षा के लिए भगवान कृष्ण ने महाभारत का युद्ध करवाया| दुसरे तरफ पूर्ण विकसित सभ्यता का विनाश का जिम्मेदार कृष्ण को मानते हैं| श्रीकृष्ण चाहते तो इस युध्द को रोक सकते थे किन्तु रोका नहीं| इसी युद्ध में मानव के साथ मानव इतिहास के सभी उपलब्धियाँ नष्ट हो गई| महाभारत के बाद नई सभ्यता की जन्म हुई| आज का मानव उसी सभ्यता का उपज है|
       कहते हैं,”इतिहास अपने आपको दोहराता है|“ आज विश्व की जो दशा है, परिस्थितियाँ जैसे बदल रही है, उससे लगता है मनुष्य की अस्तित्व ही खतरे में है| अहम्, प्रतिस्पर्धा, आणविक अस्त्रों का जाल जैसा फैलता जा रहा है, उसे देखकर यही लगता है कि संसार के सारे वुद्धिजीवी एवं वैज्ञानिक केवल आधुनिक सभ्यता नहीं, ईश्वर की सर्वोत्तम सृष्टि मानव जाति को भी पृथ्वी से निर्मूल करने में तुले हुए हैं| आज अगर मनुष्य की अस्तित्व मीट गयी तो फिर लाखों वर्ष लग जायेंगे पृथ्वी पर मानव सभ्यता विकास होने में| वैज्ञानिक अपना ज्ञान रचनात्मक कार्य में लगायें, ना कि परमाणु या जैविक अस्त्रों के निर्माण में| शक्तिशाली राष्ट्र विनम्रता दिखाएँ और अपनी शक्ति विश्व मानव कल्याणकारी काम में लगाएं| इस सभ्यता को एवं मानव जाति को सुरक्षित रखने के लिए प्रतिवद्धता दिखाए अन्यथा पृथ्वी एक दिन अपनी सृजन पर आँसू बहायगी|

कालीपद 'प्रसाद'