गुरुवार, 28 मार्च 2013

हिन्दू आराध्यों की आलोचना

 यह पोस्ट आदरणीया शिल्पा मेहता जी के पोस्ट

“rot ko mahla” ko Antga-t “@yaa ihndu Qama- hmaoM AataQyaaoM kI Aalaaocanaa krnao ka AiQakar dota hO Æ” के टिप्पणी  के रूप में लिखा गया परन्तु यह लेख बन गया है। इसलिए इसे पोस्ट के रूप में पब्लिश कर रहा  हूँ,.यह कोई विवाद का विषय नहीं, केवल स्वस्थ अकादमिक  विवेचना का विषय है।हर कोई अपना दृष्टि कोण रखने के लिए स्वतंत्र है।
`......................................
आदरणीया शिल्पा मेहता जी  
[sa ivaYaya pr pazkaoM ko iTPpiNayaaM evaM Aapko ]<ar pZ,nao ka saaOBaagya p`aPt huAa. pZ,kr AcCa lagaa ik Aapnao khIM tk- sao, ,khI Baavanaa%mak $p sao ,khIM ramaayaNa AaOr gaIta sao ]dahrNa dokr yah p`itpaidt krnao kI kaoiSaSa ik EaIrama AaOr EaIkRYNa yauga pu$Ya qao.Aap [samaoM kafI safla BaI hu[- hO .laoikna Aapka AaKrI inaNa-y,a “मैं यह सब कह कर सिर्फ इतना समझाने का प्रयास कर हूँ कि हिन्दू धर्म हमें कदापि अपने आराध्यों की आलोचना करने की स्वतन्त्रता नहीं देता, यह हमें झूठी पट्टी पढ़ाई गयी है , समय आ गया है की अपनी आँखों पर बंधी पट्टी को हम उतार फेंकें.”                          pD,nao ko baad kuC baatoM ABaI BaI idmaaga maoM hlacala pOda ike hue hOM. [sailae maOM ]na baataoM kao Aap sao evaM Anya PaazkaoM sao sahoja–Saoyar krnaa caahta huM.
    phlao maOM Apnao baaro maoM bata duM.maOM Aaistk huM ,naaistk nahI.ek [-Svar ,Anant
¸,, AsaIma¸ AdRSya ¸sava-vyaapI, ¸ sava-Sai@tmaana Bagavaana kho ¸ gaa^D kho ¸Allaah kho,¸ yaa  kuC AaOr. maOM ]namaoM ivaSvaasa rKta huM.[-Svar nao jaba [Msaana banaayaa tao ]sanao naa ihndu banaayaa¸ naa mausalamaana banaayaa ¸naa [-saa[- banaayaa¸ naa jaOna ¸baaOw ¸isaK banaayaa.yao saba tao [nsaana nao banaayaa.[-Svar ek hOM naama Anaok hOM.Aapnao EaIkRYNa ka AYTao<ar Satnaama pZ,a haogaa.maora ivaSvasa sabamaoM hO.maOM nahI jaanata ik Aap mauJao ihndu khoMgaI mausalamaana yaa [-saa[- ,baaOw ,jaOna. maOMnao “[-Svar” naama sao ek CaoTa saa laoK ilaKa qaa AaOr “Qama- @yaa hO “ ek kivata jaao maoro blaga 
(http://kpk-vichar.blogspot.
http://kpk-vichar.blogspot.in in)  maoM ,hO.yaid Aap caaho tao pZ, sakto hOM.

श्रीराम और श्री कृष्ण युग पुरुष थे और जनमानस में हैं।पूरा विश्व उन्हें मानते हैं फिर दुबारा इस बात को प`तिपादित करने की आवश्यकता क्यों पड़ी यह बात समझ में  नहीं आती।जहाँ तक उनकी चरित्रों में कमियों की बात है ¸ जो लोग गिनाते हैं¸ उन्हें तो आप और रचना जी ने सूचीबद्ध कर दिया है।उनपर मैं चर्चा नहीं करूँगा लेकिन इतना जरुर कहूँगा कि ये कमजोरियां  एक साधारण मनुष्य में भी पाया जाता है,, इसलिए यह स्वाभाविक है कि नए युवक युवती के मन में प्रश्न उठेगा कि " श्रीराम और श्री कृष्ण साधारण मनुष्य से भिन्न कैसे हैंÆ " क्योकि आज की  शिक्षा प`णाली विद्यार्थी को जिज्ञासु बनाता है। उनकी अलौकिक शक्तियां एवं कमियों को जानने के बाद यदि उन्हें युग पुरुष या भगवान  का अवतार मानकर पूजना चाहते हैं¸ तो पूजने दीजिये।यदि कोई कहे¸,"नहीं वे साधारण मनुष्य थे लेकिन राजा होने के कारण उनकी प्रशंसा बढाचढा कर की गई है। " और वे उन्हें पूजना नहीं चाहते हैं¸ तो उन्हें भी अपने विचारों के साथ रहने दें।यही तो हिन्दू धर्म का मूल मंत्र है कि हर व्यक्ति अपने विश्वास और आस्था के साथ जी सकता है।किसी को यह मानने के लिए क्यों मजबूर किया जाय जिसे हम और आप मानते हैंÆ क्या यह कट्टरपन नहीं होगा Æ हिन्दू धर्म में कट्टरपन निषिद्ध है लेकिन कहींकहीं कट्टरपन देखने को मिलता है।यही कट्टरपन हिन्दुधर्म को ज्यादा नुक्सान करता है।दक्षिण भारत में कहीं  कहीं लोग रावण और बली की भी  पूजा करते है लेकिन  हम उन्हें बुराई का प्रतीक  मानते  है। वो भी हिन्दू हैं हम भी हिन्दू हैं। 
       असल में जिसे आप हिन्दू धर्म कह रही  है,¸ यह धर्म नहीं¸,यह एक मुक्त जीवन शैली है जिसमें  जीवन अपने तरीके से जीने की आजादी है।यह राह किसी एक व्यक्ति ने तै नहीं किया है¸,जैसे कि दुसरे धर्म में है¸ ,यह तो सामूहिक जीवन यात्रा के सामूहिक अनुभवों की समष्टि है।  "जितने मत उतने पथ "के आधार पर इस पथ की श्रृष्टि हुई है।हर कोई अपनी मर्जी से एक देव देवी की कल्पना कर डाली और उसकी पूजा की। इसलिए तो हिंदुयों के तैतिश कोटि देव देवियाँ हैं¸शायद उस समय जनसंख्या इतनी रही होगी। मैं अरविन्द मिश्रा जी के इस विचार से सहमत हूँ कि¸ " आज हिन्दू वह भी है जो किसी ईश्वर के वजूद को नहीं मानता और वह भी जो चौबीसों घंटे पूजापाठ में रत रहता है . हिन्दू होना विनम्र होना है किसी की भी पूजा पद्धति की खिल्ली न उड़ाना एक श्रेष्ठ हिन्दू का गुण है -शराब पियें या न पियें आप हिन्दू हैं ,मंदिर जाएँ या न जाएँ आप हिन्दू हैं ,मांस खायें न खायें आप हिन्दू हैं ,भगवान को गाली दें या स्तुति करें आप हिन्दू हैं -इतना सृजनशील और संभावनाओं से भरा और कोई धर्म विश्व में दूसरा नहीं है -आप सभी से अनुरोध है इसे कट्टरता का जामा न पहनाएं -कोई मेरा सम्मान करे या न करे मैं हिन्दू ही रहूँगा , मुझे हिन्दू होने का फख्र है क्योंकि इस महान धर्म ने मुझे कई बंधनों से आजाद किया है.

आलोचना या निन्दा : इसके बारे में मैं पौराणिक कहानी बताता हूँ जो आप भी जानते हैं .भगवान विष्णु के द्वारपाल द्वय जय और विजय को श्राप मिला कि  उन्हें मृत्यु लोक में जन्म लेना पड़ेगा तो जय विजय ने भगवान से प्रार्थना की कि¸ श्राप से जल्दी मुक्ति पाने का उपाय बताएं। भगवान ने कहा ,"यदि तुम मुझे मित्र भाव से या भक्ति भाव से पूजते रहे तो सात जन्मों में तुम्हे मुक्ति मिल जाएगी। यदि मुझसे शत्रु भाव, से आलोचना¸ निन्दा  विरोध,-,¸ करोगे तो तीन जन्मों में मुक्ति मिल जाएगी।"  जय विजय ने कहा ,"हम शत्रु भाव रखेंगे। " भगवन ने कहा ,"तथास्तु। "  
  ऐसा माना जाता है कि जय विजय का पहला जन्म "हिरण्यक और हिरनक्यशिपु " के रूप में हुआ।दूसरा जन्म "रावण और कुम्भकर्ण " के रूप में और तीसरा जन्म "कंस और शिशुपाल " के रूप में हुआ। पहले जन्म में विष्णु निंदा की,¸ दुसरे में राम की और तीसरे में कृष्ण निंदा की और वे मुक्ति पा गए। भक्ति में आप भगवान को तब याद करते हैं जब आप पर संकट आता है¸, शत्रुता में या निंदा में तो वह आपके दिमाग में चौबिश घंटे  छाया,, रहता है ¸ हुआ ना वह सबसे बड़ा भक्त Æ इसलिए निन्दूक भी भगवान  का भक्त है। उसे अपने तरीके से भक्ति करने दीजिये ,आप अपने तरीके से कीजिये।यही हिन्दू धर्म का मूल मंत्र है। इसलिए एकबार फिर कहता हूँ  कि मैं  अरविन्द मिश्रा जी के उपरोक्त कथन का समर्थन करता हूँ।     

सादर 
कालीपद "प्रसाद" 

       













       

मंगलवार, 19 मार्च 2013

सद्वुद्धि और सद्भावना का प्रसार

 

 

चित्र गूगल साभार 

 

 

 

                    रोहित  अपने घर में सत्यनारायण की कथा करवा रहा  था. पति पत्नी और दो बच्चे, एक बेटी सुशीला और बेटा शंकर के साथ रहते थे। सुशीला नौवीं कक्षा में पढ़ती थी और शंकर सातवीं में। स्कूल की छुट्टी थी इसलिए सुशीला और शंकर ने अपने अपने कुछ दोस्तों को भी पूजा के लिए बुला लिया था।

                      पूजा का  आयोजन पूरा कर पंडितजी कथा  सुनाने  लगे।  सबलोग  तन्मय होकर कथा सुनने लगे। हर अध्याय के समाप्ति के बाद पंडित जी  बोलते "बोलो सत्यनारायण भगवान की जय " और पूरा माहोल जय जयकार से गूंज उठता। इस प्रकार कथा का समापन हुआ।कथा समाप्ति के बाद हवन  का आयोजन किया जा रहा था। पंडित जी हवन  की तैयारी कर रहे थे तभी  शंकर ने उत्सुकता वस पूछ लिया , "पंडित जी इस हवन  से क्या होता है ?"

पंडित जी ने कहा ,"हवन के द्वारा देवताओं को खुश करने के लिए अग्नि देव के माध्यम से उनको भेंट अर्पण किया जाता है।"

शंकर ने फिर पूछा ,"हवन में तो सब वस्तु जलकर राख हो जाता है फिर  भगवान् को कैसे मिलता है ?"

'देवता कोई भी चीज पञ्च तत्व के रूप में स्वीकार करते है।   अग्निदेव इसे जलाकर पंचतत्व में परिवर्तन कर देते हैं।तब सूक्ष्म रूप में यह ईश्वर के पास पहुँचता है। तुमने विज्ञानं में पढ़ा है न ? कोई भी चीज को नष्ट नहीं किया जा सकता ,केवल उसका रूप परिवर्तन होता है। अग्निदेव इन वस्तुयों का रूप बदल देते हैं।"    

शंकर के दोस्त ने पूछा ,"हवन  नहीं करेंगे तो भगवन खुश नहीं होंगे ?"

'भगवान को कुछ अर्पित करना चाहिए भगवान खुश होते है।" पंडित जी ने कहा .

शंकर के दोस्त ने फिर कहा," मेरे दादा जी तो कहते है कि भगवान को केवल भक्तों  की   श्रद्धा और भक्ति चाहिए और कुछ नहीं चाहिए।उनके पास सब कुछ है। वही हम को सब कुछ देते हैं।मनुष्य उनसे ही मांग मांगकर लेते है।फिर उनको घी, नारियल  ,केला इत्यादि क्यों चाहिए ?"    

पंडित जी ने कहा ,"यह सब नियम है ,यह अब तुम्हारे  समझ में नहीं आएगा। बड़े हो जाओ   समझमे आ जायेगा।"

इसपर सुशीला बोली ,"पंडित जी ! हमारे साइंस मैडम कहती है कि जो बात समझ में न आये , उसे बार बार पूछो जब तक समझ में न आ जाये, अन्यथा बड़े होकर तुम्हारे दिमाग में संदेह बनी रहेगी और तुम कभी भी सही निर्णय नहीं ले पाओगे।"

बच्चों के प्रश्न से पंडित जी असहजता महसूस कर रहे थे। इसे देखकर रोहित ने कहा ,"बच्चों ! पंडित जी तुम्हे हवन  के बाद सब कुछ विस्तार से बताएँगे। अब उन्हें हवन  करने दो। बच्चे मान गए। 

                  पंडित जी ने हवन शुरू किया।  रोहित ,पत्नी के  साथ हवन करने बैठ गये । पंडित जी मंत्र पढ़ते गए और वे पति पत्नी हवन  के सामग्री हवन कुंड  में डालते गए। हवन समाप्त हुआ तो पंडित जी ने कहा कि जो सामान  बचे हुए है एवं पूजा के फुल पत्तियों आदि सब  इकठा कर पानी में बहा  देना।

                  इसपर सुशीला ने कहा ,"पंडित जी इस से तो पानी गन्दा हो जयेगा। हमारे देश की सभी प्रमुख  नदियाँ  गंगा ,यमुना ,नर्मदा ,कावेरी ,गोदावरी  इसके वजह से प्रोदुषण से जूझ रही है। सरकार कोशिश कर रही है कि  इन नदियों को प्रोदुषण से मुक्त किया जाय परन्तु प्रतिदिन पूजा के सामग्री इस प्रकार नदी में फेंका जायेगा तो नदी का पानी साफ कैसे रह पायेगा ? इनको नष्ट करने का कोई दूसरा उपाय क्यों  नहीं सोचते ?"

पंडित जी ने कहा, "बेटा यह नियम है। पूजा का सामग्री पानी में ही बहा दिया जाता है। "

                  सुशीला ने कहा,"पंडित जी!यह नियम तो इन्सान ने ही बनाया है न? पौराणिक काल में जनसंख्या कम थी। पूजा पाठ केवल मुनि ऋषि एवं कभी कभी  राजा ,महाराजा ही हवन कराते थे। उस समय पानी का प्रोदुषित होने का इतना खतरा नहीं था। अब परिस्थिति भिन्न है। परिस्थिति के अनुसार विधि विधान में परिवर्तन होना चाहिए ना? आज खान पान ,परिधान सब बदल रहा है तो पूजा के विधि विधान में क्यों नहीं ?"

बेटी की बात रोहित को तर्क संगत  लगी  और अच्छी  भी लगी । उसने कहा ,"पंडित जी सुशीला ठीक  कह् रही है, इससे तो  पानी प्रोदुषित हो जायेगा। क्यों न हम इसे जमीन  में गड्ढा खोदकर उसमें गाड़  दें या फिर इस अग्निकुण्ड के हवाले कर दे ,पूरा जलकर राख  हो जायेगा?"

पंडित जी पढेलिखे थे ,पर्यावरण का महत्त्व समझते थे ,इसलिए उन्होंने उनकी बात  पर  सहमती जताई । कहा ,"आप जैसे उचित सम्झे, करें। " पंडित जी बडप्पन दिखाते हुए सुशीला की तारीफ की और पूछा ,"बेटी तुमने इतनी अच्छी २ बातें कहाँ से सीखी ?"  'हमारी साइंस मैडम ने बताया " सुशीला ने जवाब  दिया। पंडितजी ने फिर पूछा ,"मैडम ने और क्या क्या बताया ?"

                     सुशीला कहने  लगी  ,"मैडम ने बताया कि हमारे शारीर तभी स्वस्थ रह सकता है जब हम हवा , पानी , धरती को स्वस्थ रखेंगे। विज्ञानं के अनुसार हमारे शरीर बहुत से तत्व जैसे लोहा, सोडियम , कार्बन, कैलसियाम  ,ओक्सिजेन .....इत्यादि ,न जाने कितने तत्व से बना हुआ है। परन्तु धार्मिक दृष्टि कोण से  पञ्च तत्त्व से बने हुए है। जल, वायु ,मृत्तिका ,अग्नि और आकाश। इनमे जल ,वायु और मिटटी अर्थात धरती बहुत महत्वपूर्ण हैं। शुद्ध पानी पियेंगे तो शारीर निरोग रहेगा।  शुद्ध वायु होगा तो शरीर स्वस्थ रहेगा।मिटटी जिसमे  हमारे सभी खाद्य द्रव्य  ,.......चावल,गेहूं ,शाक शब्जी पैदा होता है ,यदि शुद्ध होगा तो इन उपजों में विकृतियाँ नही आएगी। हम स्वस्थ और निरोग उपज खायेंगे तो हम भी स्वस्थ रहेंगे। इसलिए मिटटी को भी प्रोदुषण से बचाना चाहिए।  हमारी मैडम  आगे कहती है कि नदी के पानी को शुद्ध रखने के लिए यह जरुरी है कि इसमें पूजा तथा श्राद्ध के सामग्री ,मृत जानवर  या शव न फेंका जाय। इसपर  पूर्ण रूप से रोक लगनी चाहिए। फेक्टरियों से निकलने वाली विषाक्त पदार्थ तो नदी में कभी नहीं  फेंकना चाहिए। नदियों से मछली पकड़ना बंद होना चाहिए। मछलियां  पानी को स्वच्छ  रखती है। मिटटी और वायु को शुद्ध रखने के लिए सबसे अच्छा तरीका है अधिक अधिक पेड़ लगना। इस से वातावरण में अधिक से अधिक प्राणवायु फ़ैल जायगा और कार्बन डाई ऑक्साइड कम हो जायेगा। पृथ्वी ,जल,वायु  हमारे लिए स्वस्थ की कुंजी है।इन्हें स्वस्थ रखेंगे तो हम भी स्वस्थ रहेंगे।"

                " बहुत अच्छी बाते बताई तुम्हारे मैडम ने। अब से मैं भी किसी जजमान को होम या पूजा के सामग्री पानी में बहाने के लिए नहीं कहूँगा। सड़ने वाले सभी सामग्री को जमीं में गाड देने केलिए कहूँगा।बांकि सभी को जला  देने लिए कहूंगा।"   पंडित जी ने कहा।

                  रोहित को लगा पूजा सफल हुआ।  चारो तरफ सद्वुद्धि  और सद्भावना का प्रसार हो रहा था ,यह एक अच्छा लक्षण है।उस  ने खुशी खुशी  सब को प्रसाद  वितरण किया। बच्चे एवं अतिथि प्रसाद लेकर ख़ुशी ख़ुशी विदा हो गए।

 

** पुराने रीति रिवाज जो आज के सन्दर्भ में हानिकारक  या अर्थहीन है बदल  देना ही श्रेयष्कर  है। 

 

कालीपद "प्रसाद "

सर्वाधिकार सुरक्षित  

  

                       

 

 

 

 

बुधवार, 13 मार्च 2013

"अहम् का गुलाम " (तीनो भाग एक साथ )

"अहम् का गुलाम " थोड़ी लम्बी कहानी  है इसलिए मैंने इसे तीन भाग में पब्लिश किया था। कहानी तो  पाठक बंधुयोँ को अच्छी लगी परन्तु पूरी कहानी  एकसाथ न पढ़ पाने का मजा नहीं ले पाए। ई .प्रदीप कुमार सहनी जी ने भी केवल भाग तीन को ही "चर्चा मंच" (वुधवार ) पर  जोड़ पाए ।  श्री कुलदीप सिंह जी इसे "नई  पुरानी हलचल " में शुक्रवार को लगा रहे है।उनसे मैंने निवेदन किया है तीनो भाग को मैं एकसाथ पब्लिश कर देता हूँ। आप उसे    "नई  पुरानी हलचल " जोडीये।  पाठक /ब्लॉग  बन्धुयों  को भी पूरी  कहानी एक साथ पढ़ने का मौका मिलेगा । इसलिए यह दोबारा पब्लिश किया जा रहा है।

------------------------------------------------------------------------------------------------------

                                                                  

 आधुनिक युग में यद्यपि शिक्षा के  प्रचार प्रसार से जागरूकता बढ़ी है परन्तु दांपत्य जीवन में  जो धैर्य ,सहनशीलता और ठहराव चाहिए  उसकी कमी कदम कदम पर दिखाई देती है। आज कल नवदम्पति में समझदारी और समझौता की कमी है।फलस्वरूप बात तलाक  तक पहुँच जाती है। समय रहते यदि दोनों में से एक को भी सद्-बुद्धि आ जाये तो परिवार बच जाता है . देखिये कैसे ...........एक कहानी

                                    "अहम् का गुलाम " 

 

रश्मि ने कलाई में बंधी घडी देखी।रात्रि  के तीन बज रहा था।चारो तरफ निस्तब्तता  छायी हुई थी।रश्मि को छोड़कर दुनियां में शायद सभी नर,नारी ,बाल ,वृद्ध  गहरी नींद में सो रहे थे लेकिन उसकी आँखों में नींद नहीं थी।पास वाले पलंग पर प्रकाश  भी गहरी नींद में  सो रहा था।  लेकिन उसके दिमाग में प्रकाश के एक एक शब्द गूंज रहा था।स्वभाव से शांत ,सहनशील और मितभाषी प्रकाश ने रात को सोते समय शांत स्वर में ही कहा था ," रश्मि , सोचता हूँ कि पति-पत्नी का अर्थ एक छत के नीचे रहना नहीं है वल्कि उस से आगे है कुछ ।पति-पत्नी एक दुसरे के सुख दुःख के भागीदार होते हैं।  दोनों एक दुसरे के पूरक होते हैं।दोनों मिलकर ही एक पूर्ण व्यक्ति बनता है।इस पूर्णता के लिए यह जरुरी है कि पति-पत्नी एक दुसरे को अच्छी तरह समझने  की कोशिश करे। दुर्भाग्य से हम दोनों की प्रकृतियाँ ही भिन्न भिन्न है।शायद इसमें तुम्हारा या मेरा दोष कम है बचपन का परिवेश का प्रभाव ही इसके लिए जिम्मेदार है। "

           कुछ देर रुककर फिर कहा  ,"रोज रोज की झगडे भी  जीवन में कटुता का बिष  घोल रहा है ,तूम्हारे भी और मेरे भी।  इस नारी मुक्ति वर्ष में क्यों न हम दोनों तलाक  लेकर इस बिष  मय जीवन से मुक्त हो जाएँ ?" प्रकाश क्षणभर रूककर रश्मि की ओर देखा। रस्मी जो अभी तक आँख बंद किये हुए प्रकाश की बाते सुन रही थी, विस्फारित नयनों से प्रकाश की ओर ऐसे देखने लगी मानो उसके कान बादल के गर्जन से बहरे हो गए  और  आँखे बिजली की चमक से चौधियां गई हो।वह शिथिल हो गई थी।कुछ नहीं बोल पा रही थी। प्रकाश ने ही आगे कहा ,"इसमें न तुम मेरे ऊपर कोई दोषारोपण करोगी न मैं तुम पर।चूँकि दोंनो की प्रकृतियाँ ही अलग अलग है  इसलिए  दोनो  स्वच्छा से इस बंधन से मुक्त हो जायेंगे वैसे, जैसे दो पथिक पथ में मिलते है ,कुछ् देर साथ चलते हैं और फिर चौराहे पर आकर अपने अपने पथ पर चल पड़ते  हैं। हम दोनों भी आज जीवन के चौराहे पर खड़े हैं। बिछुड़ने का दुःख तो होगा परन्तु  चौराहे पर खड़े रहना वुद्धिमानी नहीं है।" प्रकाश ने दीर्घ स्वांस छोड़कर कहा ,"गहन रात्री में जब तुम्हारा गुस्सा उतर जाए ,चारो तरफ शांति का वातावरण हो , तब निष्पक्ष होकर सोचना इस विषय पर और अच्छी तरह सोच समझकर मुझे बता देना। जो तुम चाहोगी वही होगा ,अंतिम फैसला तुम्हे ही करना है । " प्रकाश  करवट बदल कर लेट गया और न जाने कब उसकी नींद लग गई।रश्मि के दिमाग में तो प्रकाश की आवाज गूंज रही थी।उसके धमनियों में जैसेकुछ समय के लिए रक्त का संचार रुक गया था।वह स्वयं नारी मुक्ति संगठन की एक सक्रिय सदस्या थी।कई अवसरों पर उसने तलाक  पर व्याख्यान दिए ,दूसरों को तलाक  के लिए प्रोत्साहित भी किया ,परन्तु उसे अपनी तलाक की बात सुनकर उसका रक्त जम  गया था ।

                     रात्रि के चतुर्थ प्रहर समाप्त  होने वाला था परतु रश्मि  प्रकृतिस्थ नहीं हो पायी।सिरहाने पर रखे गिलास से उसने पानी पिया।थोडी देर  और आँख मुंद कर लेटी रही, मन में उठे तूफान को शांत करने की कोशिश करने लगी परन्तु उसके दिमांग में प्रकाश के ये शब्द गूंज रहे थे "........हम मुक्त हो जायेंगे वैसे ही ,जैसे दो पथिक पथ में मिल जाते हैं, कुछ दूर साथ साथ चलते  हैं ,फिर चौराहे पर आकर अपने अपने पथपर चल पड़ते है।" सच तो है .......,वे दोनों भी तो पथिक हैं ......।जीवन पथ पर पहली बार अपने ही घर में मिले थे ,कुछ दिन साथ रहे -बिछुड़े -फिर मिले।रश्मि सोचने लगी .....।स्मृति रेखा के सहारे वह अतीत में पहुँच गयी।उसके आँखों के सामने अपने जीवन की   हर बीती हुई घडी  चलचित्र की भांति गुजरने लगी। पिताजी सेना में मेजर थे।अत्यधिक तबादला के कारण मेरी पढ़ाई  में  क्षति उठाना पड़ता  था ,इसलिए मुझे कालेज हॉस्टल में भर्ती कर दिया गया।   उन दिनों मै बी . एस . सी . फ़ाइनल की परीक्षा देकर घर आई हुई थी।तभी एक दिन हमारे घर कुछ मेहमान आये।    पिताजी ने उन्हें बड़े आदर से बैठाया।मेहमानों में एक सुन्दर ,शांत और मितभाषी युवक भी था।जब पिताजी ने परिचय कराया तब पता लगा कि वह बी .ई .फ़ाइनल का छात्र था ।पापा ने कहा ,"यह  प्रकाश है।वह  प्रोफ़ेसर साहब का बेटा  है , बी .ई .फ़ाइनल का छात्र है ,और हमेशा कक्षा में प्रथम आता है। वह भी छुट्टी में घर आया हुआ है ।"*

इसके बाद प्रकाश हमारे घर अक्सर आने लगा। थोड़ी ही दिनों में हम दोनों में मित्रता हो गई।हम हर विषय पर खुलकर चर्चा करते थे।लेकिन उसे मेरी चंचलता ,अधिक बात करना पसंद नहीं था।   हर समय टोकता था ,"रश्मि ऐसा नहीं करना चाहिए, ....  ऐसा नहीं बोलना चाहिए ...सोचकर बोलना चाहिए।" मुझे गुस्सा तो आता था परन्तु मैं चुप रहती थी क्यकि मैं उसे चाहने लगी थी। मैं उसे किसी भी हालत में खोना नहीं चाहती थी।  सोचती थी कि  समय के साथ साथ सब ठीक हो जायेगा। एकदिन बातों ही बातों में प्रकाश ने कहा था ,"रश्मि तुम बहुत खुबसूरत हो लेकिन यदि तुम अपनी तुनक मिजाजी छोड़कर थोडा  गंभीर हो जाओगी  तो और खुबसूरत हो जाओगी।"   प्रकाश ने आगे कहा था ,"बुरा न मानना ,तुम्हारा उग्र स्वाभाव और  असहनशीलता तुम्हारे वैवाहिक जीवन में कटुता ला सकता है। "  तब मैंने हंसकर जवाब दिया था ,"अजी साहब ! कटुता और मधुरता  दोनों ही चाहिए जिंदगी में  जायका  बदलने के लिए।एक रस से  जी उब जायगा।" प्रकाश ने कुछ नहीं कहा था ,केवल मुस्कुरा दिया था।

                  उसके चार वर्ष बाद मेरा व्याह प्रकाश से हो गया था।उसमे मेरी ही आग्रह ज्यादा थी।माँ राजी नहीं थी परन्तु मेरी ही जिद के कारण पिताजी ने माँ को समझा बुझा कर राजी किया था। विवाह के बाद दो वर्ष बड़ी ख़ुशी से बीत गए।  उसके बाद बात बात पर टकराव होने लगा। मेरी हर बात उन्हें कांटे जैसे चुभने लगी । हर बात पर टोकते ,कबतक मैं चुप रहती ? मैं भी पढ़ी लिखी हूँ। चाहूँ तो नौकरी कर सकतीहूँ।आजादी से रह सकती हूँ ................

रश्मि करवट बदल कर लेट गई।उसके मन में कभी विद्रोह तो कभी संदेह घर कर रहा था।कभी सोचती ,  "शायद प्रकाश उस से छुटकरा पाने का बहाना ढूढ़ रहा है, ,लेकिन क्यों ? क्या वह दूसरी शादी करना चाहता है ? क्या वह किसी और को चाहने लगा है ?" कई प्रश्न एक साथ उसके दिमाग में कौंध गए। पर इन प्रश्नों का कोई तार्किक जवाब उसके  पास नहीं था।"तो फिर क्या गृह कलह ही एक मात्र कारण है ?" रश्मि सोचने लगी।

"लेकिन इस झगडे में केवल मैं ही तो दोषी नहीं हूँ।वह भी तो जिम्मेदार है।  एक बात कहो तो दश उपदेश  सूना देता है। अभी उस दिन की बात है जब मैं कुछ ब्लाउज पीस ,एक साडी ,एक शर्ट पीस और कुछ जरुरत की चीजे लाई तो जनाब कहने लगे ," अरे इतने सारे चीजों की क्या जरुरत है ?तुम्हारे पास तो कई नई साड़ियाँ हैं ,मेरे पास कई कमीजें हैं। तुम्हे कई बार कहा कि  मित व्यायी बनो परन्तु तुम्हारे समझ में तो बात आती नही।" कहते हुए बाहर निकलकर बरांडे में  जाकर बैठ गए।मुझे भी गुस्सा आ गयी । मैं भी पीछे पीछे गई। गुस्से में मैंने कहा ," मेरी माँ  बाजार से अपने लिए कई साड़ियाँ एकसाथ लाती थी लेकिन मेरे पापा ने मम्मी को कभी कुछ नहीं कहा और तुम हो कि मुझे हर बात पर लानत देतो हो।"

तब प्रकाश ने कहा था ,"तुम्हारा मतलब तुम्हारी मम्मी ने तुम्हे फ़िज़ूल खर्ची का पाठ पढाया है? मुझे नहीं लगता । खैर ,मेरे  पास फ़िज़ूल खर्च के लिए पैसे नहीं है। "

"तुम कंजुष हो , शादी के पहले नहीं सोचा था कि बीबी के आने से खर्चा बढ़ जाएगी"मैंने गुस्से में उबलते हुए कहा।

" अजी यहीं तो मैं गलती कर बैठा, बीबी पाने के चाह में मैं ................."   प्रकाश की बात काटकर रश्मि ने कहा ,"मैं बीबी नहीं हूँ तो क्या हूँ ?"

"तुम पूरी बात तो सुनती नहीं हो और  हर बात का गलत अर्थ निकाल लेती हो। " कहकर प्रकाश घर से निकल गया था। 

         रश्मि को नींद नहीं आ रही थी। करवट बदलते बदलते  सुबह का पांच बज गया था । "मेरी कोई इज्जत ही नहीं यहाँ।अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी

।"  उसने निर्णय ले लिया ।  सुबह उठते ही उसने जल्दी जल्दी जरुरत की चीजें सूटकेस में भर लिया। नौकर को कहकर टेक्सी भी बुलवा लिया। टेक्सी की आवाज सुनकर प्रकाश की नींद टूट गई।जबतक  वह उठकर बाहर आया तबतक रश्मि तैयार होकर टेक्सी के पास पहुँच गई थी ।  प्रकाश हैरान था। उसने पूछा ,"रश्मि कहाँ  जा रही हो  ?"

"............."रश्मि ने  कोई जवाब नहीं दिया।

उसने रश्मि को फिर आवाज़ लगाया," रश्मि .............!,रश्मि ...........!!,

रश्मि ने एक पैर कार के अन्दर डाल कर मुड़कर देखा तो प्रकाश ने पूछा ,"कहाँ जा रही हो ?"

"माँ के पास " रश्मि ने जवाब दिया।  

"कब  आओगी ?"

"........." रश्मि ने कुछ नहीं कहा।  गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी आगे बढ़  गई। प्रकाश दौड़ कर  गाड़ी को पकड़ने  की  कोशिश किया परन्तु देखते ही देखते टेक्सी आँखों से ओझल हो गई।  `उसने एक दीर्घ स्वांस छोड़ा और  कुछ देर निर्वाक वहीँ खड़ा  रहा ,फिर बरन्दे(बरामदे ) में आकर एक कुर्सी पर बैठ गया।

"श्यामू चाचा " उसने बूढ़े नौकर को आवाज़ दिया।

"जी हुजुर " 

"बीबी जी ने तुमसे कुछ कहा था क्या  ?" 

"जी हुजुर, सुबह उठते ही मुझेएक टेक्सी लाने के लिए कहा , पूछने पर बताया कि जरुरी काम से मायका जाना है। "

"हूँ " उसने श्यामू से कहा, "अच्छा तूम जाओ। "

प्रकाश फिर जा कर लेट गया। बहुत सी बातें एक साथ उसके दिमाग में आने लगी लेकिन किसी भी बात पर विचार करने की स्थिति में वह नहीं था। वह शांति चाहता था अत: वह सोने की कोशिश करने लगा।

             रश्मि को मायके गए करीब पांच छै  महीने हो गए थे परन्तु न रश्मि ने कोई पत्र लिखा न प्रकश ने। कौन पहल करे ?यही समस्या थी। एक ही शहर में रहते हुए भी बहुत दूर थे। रश्मि जब से गयी थी , तब से समाचार पत्र और रोजगार समाचार के एक एक कोना  छान डालती थी ।जो भी विज्ञापन उसके योग्यता के अनुसार उपयुक्त लगता ,उसके लिए आवेदक करती।  वह वनस्पति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट थी, फिर भी नौकरी पाने में सफलता नहीं मिली। यह  एक विडम्बना ही है आज के पीढ़ी के लिए । भाई भाभी पहले ही उस से नाराज थे , माँ और पिताजी का व्यव्हार भी उसके प्रति धीरे धीरे बदल गया था। विशेषकर माँ का व्यव्हार जैसे रुखा हो गया था। बात बात में कहती "तुम्हारे डैडी  ने तुम्हे सर पर चढ़ा रखा है।" कभी कहती ,"तुम्हारी नादानी के वजह से  वेचारा प्रकाश भी परेशां है। प्रकाश तुम्हारा पति है, कुछ अगर बोल भी दया तो क्या हुआ ? पतिपत्नी में कभी कभी छोटी  मोटी  ख़ट  पट चलती रहती है।इस से कोई रिश्ते थोड़े तोड़ते हैं ? चलो मैं तुम्हे उसके पास छोड़ आती हूँ,उसको समझा भी दूंगी  । " रश्मि को ये बाते मानो सुई चुभो देती ,सोचती ..."यदि नौकरी मिलजाए तो  इनसे भी अलग हो जाउंगी।"  

             

इस बीच  रश्मि की माँ एक बार प्रकाश से मिल आई थी। प्रकाश ने स्पष्ट शब्दों में कहा था ,"माता जी ,रश्मि बहुत अच्छी है परन्तु उसमें  सिर्फ एक दोष है।  कोई भी बात जो उसके विचारों के प्रतिकूल है, उसे वह मानने को तैयार नहीं है। वह जल्दी गुस्सा हो जाती है और अप्रासंगिक तर्क  करने लग जाती है जो एक पढ़ी लिखी लड़की से आशा नहीं की जाती है।उसको समझाने की कोशिश करो तो चिड जाती है , यही झगडे का मूल कारण है।आप जानती है ,पत्नी ही गृह  शांति   का मूल है। उसे उसकी रक्षा के लिए असीम सहनशीलता और धैर्य का परिचय देना पड़ता है।रश्मि यहीं मात खा जाती है।  

"मैं उसे समझा दूंगी " माँ ने कहा था।

"आपके पास वह पांच,छै महीने से है।आगे क्या करना चाहती है ?कुछ बताया उसने  ? प्रकाश ने पूछा 

"नौकरी करना चाहती है। परन्तु कहीं से कुछ आया नहीं अभी तक।" माँ ने बताया। 

"अच्छा है ,नौकरी करेगी तो शायद अलग अलग लोगो से मिलते जुलते रहने से उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन आ जाये।' प्रकाश ने आशा व्यक्त किया।फिर कुछ देरतक दोनों चुप रहे।

माता जी उठ खड़ी हुई और बोली ,"अच्छा बेटा मैं चलती हूँ ,अपना ख्याल रखना।"   प्रकाश उनको छोड़ने रास्ते तक गए। उनके पैर छुए और उनको रिक्से में बैठा दिया। "खुश रहो बेटा " माँ ने आशीर्वाद दिया और रिक्सा चल पड़ा।  

               करीब साल भरसे रश्मि नौकरी की तलाश में खून पसीना एक कर रही थी परन्तु कहीं से कोई उम्मीद की किरण नज़र नहीं आ रही थी।आज फिर एक इंटरव्यू के लिए जा रही थी तभी उसकी सहेली  नीना  बस स्टॉप पर खड़ी मिली। 

 "हेलो रश्मि , कहाँ जा रही हो ?"  नीना ने पूछा 

"बस यूँ ही जरा काम से जा रही हूँ।"

"अरे हमारे स्वीट जीजा जी को कहाँ छोड़ आई? हम नज़र थोड़े  ही लगायेंगे ? " यह नीना थी जो हर बात में मज़ा लेना बखूबी जानती थी।

" यार छोड़ना ये बातें , यह बता तू बनठन कर कहाँ जा रही है ?"

"अरे जाना कहाँ है ?तुझ जैसे खुश नसीब हम थोड़े ही हैं ? अभी तो हम  दुल्हे की खोज में मारे मारे फिर रहे हैं। सच ,इर्षा होती है तेरे भाग्य पर।"

" नीना , तू ने यह छेड़खानी की आदत अभी तक  छोड़ी नहीं ?"

"ओह हो ! और तूने अपनी तुनक मिजाजी छोड़ दी क्या  ?जरुर दी होगी , स्वीट जिजा जी  के प्यार  ने तुझे सब भुला दिया होगा, है ना ?" नीना चहकी।

बस आ गई थी ,दोनों बस में चढ़ गई ,सिट पर बैठकर रश्मि  ने फिर पूछा , "तूने बताया नहीं कहाँ जा रही है ?"

"स्कूल जा रही हूँ, एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हूँऔर तू कहाँ जा रही है ?

"  यह नीना  थी।

"मैं एक नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रही हूँ।" रश्मि धीमी आवाज़ में जवाब दिया।

"अरे तुझे नौकरी करने की क्या जरुरत है , जीजाजी तो अच्छा कमा रहे है। आराम  से घर पर बैठ कर मौज कर। "   

रश्मि चुप रही तो नीना ने ही पूछ लिया  "    अरी! क्या सोच रही हो  ?घर पर खाना नहीं पच रहा है  क्या ?" 

"ऐसी बात नहीं है " रश्मि ने धीरे कहा।

"तो बता ना क्या बात है ?" नीना उत्सुक होकर पूछ बैठी।  

रश्मि ने एक दीर्घ स्वांस छोड़ा  फिर विस्तार  से अपनी कहानी आद्योपांत नीना को सुन दी।   

           बस स्टॉप आ चूका था। नीना उतरते हुए बोली ,"रश्मि! तुम गुस्से में बहुत बड़ी भूल कर रही हो ,अभी भी समय है ,जरा ठन्डे दिमाग से सोचना और भूल सुधारने की कोशिश करना , देखना कहीं बहुत देर न हो जाय , अपना ख्याल रखना ,मैं चलती हूँ।"

अगले स्टॉप पर रश्मि उतर गई। सौभाग्य से इस बार उसे सफ़लता मिल गई।उसे स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिल गई।सुबह दश बजे रश्मि स्कूल जाती और शाम को पांच बजे ही घर आ पाती। लड़कियों को पढाने  में उसे बहूत मेहनत करना पड़ता था ।इतने मेहनत  करने के बाद भी उसे केवल चार हज़ार रुपये मिलते थे और आठ हजार पर दस्तखत करना पड़ता था।यही बात उसे खलती थी परन्तु कुछ कह नहीं पाती। नौकरी  खो देने का डर था।  हेड मिस्ट्रेस छोटी छोटी बात पर नौकरी से निकल देने की धमकी देती रहती थी। यह तो रश्मि के लिए असहनीय था लेकिन मज़बूरी में सह लेती थी। अब उसको धीरे धीरे समझ में आने लगा कि प्रकाश के जिन बातों से वह चिड्ती थी उसमे वास्तव में चिड़ने की कोई बात ही नहीं थी।प्रकाश ने कभी भी उसे किसी बात के लिए  ऐसे मजबूर नहीं किया।उसे पैसे  का महत्त्व भी समझ में आने लगा था।  अधिक थकावट के कारण उसे रात को लेटते ही नींद आ जाती थी परन्तु एकबार नींद खुली तो फिर आने का नाम नहीं लेती।तब अनायास ही उसे प्रकश की याद आ जाती थी ।ऐसी ही एक गहरी रात  में जब उसकी नींद खुली  तो उसे याद  आया, प्रकाश चांदनी  रात में घुमना पसंद करता था। "वह पूर्णिमा की रात्रि थी।आधी रातके बाद उसने मुझे  जगाया था " -वह याद करने  लगी

 प्रकाश ने कहा ,"उठो ,चलो बाहर घूम आएँ।" 

" इतनी रात को बाहर क्या करने जाएँ ?" मैंने पूछा।

 "अरे देखो तो कितनी निर्मल चांदनी  फैली हुई है चारो ओर ,कितना सुन्दर ,कितना रोमांटिक वातावरण है !! तुम्हे अच्छा नहीं लगता ?"  

मुझे जाने की इच्छा नहीं थी परन्तु मैं उसके गयी थी  और लान में जाकर उसके गोद में सर रखकर मैं लेट गई थी । बालों को सहलाते हुए प्रकाश ने कहा था, "  रश्मि यदि रात में चांदनी नहीं होती तो रात अँधेरे में डूबी रहती और मेर जीवन में यदि 'रश्मि ' नहीं होती तो मैं  भी अँधेरे में भटकता रहता।" मुझे बहुत अच्छा लगा था यह् सुनकर ।मैं आँख मूंदकर तहे दिल से आनंद की अनुभूति को महसूस कर रही थी। तभी वह  दोनों हाथों  से मेरे चेहरे को पकड़कर मेरे ऊपर झुक गया था। मैं झटपट उठ बैठी थी और हलकी सी झिडकी भी  दी , "कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा ?" और मैं भागते भागते कमरे में आगई थी।मेरे पीछे पीछे प्रकाश भी भाग कर कमरे में आगया था। वो चाँदनी रात मेरी जिंदगी में एक अविस्मरनीय रात थी।बातों बातों  में और सरारतों में रात बीत गई थी।  

कभी दार्शनिक ढंग से प्रकाश कहता ,"रश्मि तुमने कभी सोचा है कि  इस दुनिया में कौन ,कितने दिन किसी का साथ देता है ?"

"नहीं तो ,यह कैसा प्रश्न है ?"

प्रकाश ने आगे कहा ," देखो एक समय ऐसा आता है जब चारों तरफ रिश्तेदार ही रिश्तेदार होते है फिर भी अकेलापन महसूस होता है। तब लगता है  काश ! कोई ऐसा होता जो अनकही बातों को समझ जाते। "

"मैं तो हूँ तुम अकेले कैसे हो ? तुम तो कहते हो पति -पत्नी   मिलकर एक ईकाई बनती है। "

" इसी ईकाई में  से अर्थात पति -पत्नी में से कोई एक अगर चला जाय तो दुसरे के लिए छोड़ जाता है सिर्फ अँधेरा।"

  आज रश्मि को भी ऐसा महसूस हो रहा था की उसके आगे सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है। अकाट्य अँधेरा। " शायद प्रकश को भी ऐसा लग रहा होगा " उसने सोचा।

   वह किस उद्येश्य से आई थी ? क्यों आई थी  ? किसके भरोसे आई थी ? किसी भी प्रश्न  का उत्तर नहीं मिला।उसे लगा  चारो तरफ से प्रकाश  लुप्त हो चूका है, बचा है केवल अँधेरा, इस अँधेरे में वह अकेली है।सच में, प्रकाश के  बिना  जीवन में अँधेरा के सिवाय और कुछ नहीं बचा।  भाई , भाभी के लिए तो वह बिलकुल परायी हो गई है।

कई दिनों से सोच रही थी की प्रकाश को एक पत्र लिखे ,परन्तु लिखे तो क्या लिखे ?आते वक्त उसके प्रश्नों का ढंग से जवाब भी नहीं दिया था। यही सोच विचार में पड़ी थी कि माँ ने एक लिफाफा लाकर उसे दिया।अक्षर देखकर उसकी धड़कन बढ़ गई।अपने कमरे में जाकर अन्दर से दरवाज़ा बंद कर क्या।लिफाफा को जल्दी जल्दी फाड़कर उसके अन्दर से पत्र निकाल  कर पढने लगी।    

               प्रिय रश्मि,

                               आशा  है तुम अच्छी होगी। इस लम्बी अवधि में तुमने अपने आपको संभाल  लिया होगा और शांति से भविष्य के बारे में विचार किया होगा। मुझे नहीं मालुम की तुमने क्या निर्णय लिया है।मेरे  साथ रहते हुए कई अवसर पर तुम्हे बहुत कष्ट हुआ होगा परन्तु सच मानो मेरी इरादा कभी भी तुम्हे कष्ट पहुँचाने  की  नहीं थी ।इसके वावजूद भी यदि जाने अनजाने में मैं तुम्हे दुःख दिया है तो मुझे क्षमा कर देना। तुम्हारे जाने के बाद जिंदगी रुक सी गई है। खैर,तुम जहाँ रहो खुश रहो  , यही कामना है  मेरी। मेरा तबादला इंदौर हो गया है। दश जनवरी को रात्रि पौने नौ बजे बिलाशपुर -इंदौर एक्सप्रेस से मैं जा रहा हूँ ।वहाँ जाकर मैं अपना पता तुम्हे भेज दूँगा ।अपनी  निर्णय की सुचना उस पते से भेज देना।अगर तुम कहो तो मैं तुम्हे लेने आ जाऊँगा।अपना ख्याल रखना।

तुम्हारे इन्तजार में 

तुम्हारा 

प्रकाश .

           पत्र पढ़कर पिंजड़े में बंद पंछी की भांति रश्मि छटफटाने  लगी। अब क्या करे ?आज आठ तारीख है। दश को वह जा रहा है।  अभी तक तो वह द्विविधा  में थी परन्तु  प्रकाश के पत्र ने तो उसे रास्ता दिखा दिया।उसने भी जल्दी निर्णय ले लिया।एक टुकड़ा कागज़ में कुछ लिखा और लिफाफा में बंद करके रख दिया।  

                प्रकाश सुबह से ही पैकिंग में व्यास्त  था। वैसे तो उसके आफ़िस के दो सहायक पैकिंग का सभी काम कर रहे थे परन्तु उसे बार बार रश्मि  की याद आ रही थी।अगर रश्मि होती तो ख़ुशी कुछ और होती। पैकिंग समाप्त कर उसने सभी सामान दो सहयोकों के साथ स्टेशन रवाना कर दिया और खुद फ्रेश होने बाथ रूम में घुस गया ।फ्रेश होने के बाद सोफे पर बैठकर उसे लगा की कुछ छुट गया है।खाली घर जैसे उसके दिल में भी सूनापन घर कर गया। उसे ऐसे लगने लगा कि वह कुछ खोकर जा रहा है।वह आँख मूंद कर आराम करना चाहता था परन्तु आँख मूंदते ही एक चित्र उभर आया 'रश्मि ...रश्मि ..रश्मि  .......' उसने  अनुभव किया कि जब जब वह विशाल जन समूह के अन्दर से गुजरा, वहाँ  रश्मि की कमी महसूस हुई ,एक जोड़ी प्रेमाशिक्त आँखों कि कमी महसूस हुई। आज भी प्रकाश को वही अनुभूति  हो रही थी।  

             मनुष्य कभी कभी झूठे अभिमान में यह भूल जाता है कि जीवन की गाडी तभी आगे बढती है जब दोनों पहिये साथ साथ चलते हैं।यदि एक रुक जाती है तो दूसरा उसके चारो तरफ घुमने लगता है ,गाडी कभी आगे नहीं बढती।

              रश्मि और प्रकश के साथ भी यह बात शत प्रतिशत लागू थी।उनकी जीवन रूपी गाडी रुक गई थी।दोनों दिल से चाहते थे कि दोनों फिर से मिले पर अभिमान उन्हें मिलने नहीं दे रही थी। 

               आठ बीस पर गाडी आ गई। प्रकाश के आफ़िस के कुछ मित्र उन्हें छोड़ने आये थे।उनकी देखरेख में सहायकों ने सामान गाडी में चढ़ा दिया।प्रकाश भी सब सामान एक एक कर खुद देख लिया।गाड़ी छोड़ने का टाइम हो गया था। गाड़ी ने सिटी बजा दी थी।प्रकाश दोस्तों के गले मिलकर विदा होकर दरवाजे पर खड़ा हो गया। गाड़ी चलना शुरू ही हुआ था कि उसकी नजर दौड़ती हुई आती रश्मि पर पड़ी।एक हाथ में एक छोटी सी अटैची और दुसरे हाथ से साडी  सँभालती हुई आ रही थी।अचानक दोनों की आँखे मिली।जो कुछ कहना था शायद एक ही नज़र में दोनों कह डाले।रश्मि दौड़कर गाड़ी के पास आई तो प्रकाश ने हाथ बढ़कर उसे गाड़ी के अन्दर खींच लिया। उसे पकड़कर प्रथम श्रेणी के केबिन में जाकर दरवाज़ा अन्दर से बंद कर दिया।

प्रकाश ने रश्मि का हाथ अपने हाथ में लेकर  कहा ,"रश्मि मुझे पूर्ण विश्वास था कि तुम मुझे गलत नहीं समझोगी " 

"फिर तुम लेने क्यों नहीं आये ?"  रश्मि ने अभिमान में पूछा 

' शायद यही मेरी गलती थी " कहते  हुए उसने रश्मि को अपनी ओर खींच लिया तो रश्मि अनायास ही उसके सीने में अपना मुहँ छुपाकर फफक कर रो पड़ी।अभिमान के बादल आंसू बनकर बह गए। दिल का आकाश निर्मल हो चूका था।  बहुत दिनों के बाद वे एक दुसरे के  दिल के सच्चे   धड़कन महसूस कर रहे थे।

           गाड़ी तब तक गति पकड़ चुकी थी.फिर अपनी गति की यौवन में हिलती डुलती मस्ती में आगे बढती गई अपनी मंज़िल की ओर।

 

कालीपद "प्रसाद "
©सर्वाधिकार सुरक्षित

                               

 

मंगलवार, 12 मार्च 2013

अहम् का गुलाम (भाग तीन )

इस बीच  रश्मि की माँ एक बार प्रकाश से मिल आई थी। प्रकाश ने स्पष्ट शब्दों में कहा था ,"माता जी ,रश्मि बहुत अच्छी है परन्तु उसमें  सिर्फ एक दोष है।  कोई भी बात जो उसके विचारों के प्रतिकूल है, उसे वह मानने को तैयार नहीं है। वह जल्दी गुस्सा हो जाती है और अप्रासंगिक तर्क  करने लग जाती है जो एक पढ़ी लिखी लड़की से आशा नहीं की जाती है।उसको समझाने की कोशिश करो तो चिड जाती है , यही झगडे का मूल कारण है।आप जानती है ,पत्नी ही गृह  शांति   का मूल है। उसे उसकी रक्षा के लिए असीम सहनशीलता और धैर्य का परिचय देना पड़ता है।रश्मि यहीं मात खा जाती है।  

"मैं उसे समझा दूंगी " माँ ने कहा था।

"आपके पास वह पांच,छै महीने से है।आगे क्या करना चाहती है ?कुछ बताया उसने  ? प्रकाश ने पूछा 

"नौकरी करना चाहती है। परन्तु कहीं से कुछ आया नहीं अभी तक।" माँ ने बताया। 

"अच्छा है ,नौकरी करेगी तो शायद अलग अलग लोगो से मिलते जुलते रहने से उसके व्यवहार में कुछ परिवर्तन आ जाये।' प्रकाश ने आशा व्यक्त किया।फिर कुछ देरतक दोनों चुप रहे।

माता जी उठ खड़ी हुई और बोली ,"अच्छा बेटा मैं चलती हूँ ,अपना ख्याल रखना।"   प्रकाश उनको छोड़ने रास्ते तक गए। उनके पैर छुए और उनको रिक्से में बैठा दिया। "खुश रहो बेटा " माँ ने आशीर्वाद दिया और रिक्सा चल पड़ा।  

               करीब साल भरसे रश्मि नौकरी की तलाश में खून पसीना एक कर रही थी परन्तु कहीं से कोई उम्मीद की किरण नज़र नहीं आ रही थी।आज फिर एक इंटरव्यू के लिए जा रही थी तभी उसकी सहेली  नीना  बस स्टॉप पर खड़ी मिली। 

 "हेलो रश्मि , कहाँ जा रही हो ?"  नीना ने पूछा 

"बस यूँ ही जरा काम से जा रही हूँ।"

"अरे हमारे स्वीट जीजा जी को कहाँ छोड़ आई? हम नज़र थोड़े  ही लगायेंगे ? " यह नीना थी जो हर बात में मज़ा लेना बखूबी जानती थी।

" यार छोड़ना ये बातें , यह बता तू बनठन कर कहाँ जा रही है ?"

"अरे जाना कहाँ है ?तुझ जैसे खुश नसीब हम थोड़े ही हैं ? अभी तो हम  दुल्हे की खोज में मारे मारे फिर रहे हैं। सच ,इर्षा होती है तेरे भाग्य पर।"

" नीना , तू ने यह छेड़खानी की आदत अभी तक  छोड़ी नहीं ?"

"ओह हो ! और तूने अपनी तुनक मिजाजी छोड़ दी क्या  ?जरुर दी होगी , स्वीट जिजा जी  के प्यार  ने तुझे सब भुला दिया होगा, है ना ?" नीना चहकी।

बस आ गई थी ,दोनों बस में चढ़ गई ,सिट पर बैठकर रश्मि  ने फिर पूछा , "तूने बताया नहीं कहाँ जा रही है ?"

"स्कूल जा रही हूँ, एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाती हूँऔर तू कहाँ जा रही है ?

"  यह नीना  थी।

"मैं एक नौकरी के लिए इंटरव्यू देने जा रही हूँ।" रश्मि धीमी आवाज़ में जवाब दिया।

"अरे तुझे नौकरी करने की क्या जरुरत है , जीजाजी तो अच्छा कमा रहे है। आराम  से घर पर बैठ कर मौज कर। "   

रश्मि चुप रही तो नीना ने ही पूछ लिया  "    अरी! क्या सोच रही हो  ?घर पर खाना नहीं पच रहा है  क्या ?" 

"ऐसी बात नहीं है " रश्मि ने धीरे कहा।

"तो बता ना क्या बात है ?" नीना उत्सुक होकर पूछ बैठी।  

रश्मि ने एक दीर्घ स्वांस छोड़ा  फिर विस्तार  से अपनी कहानी आद्योपांत नीना को सुन दी।   

           बस स्टॉप आ चूका था। नीना उतरते हुए बोली ,"रश्मि! तुम गुस्से में बहुत बड़ी भूल कर रही हो ,अभी भी समय है ,जरा ठन्डे दिमाग से सोचना और भूल सुधारने की कोशिश करना , देखना कहीं बहुत देर न हो जाय , अपना ख्याल रखना ,मैं चलती हूँ।"

अगले स्टॉप पर रश्मि उतर गई। सौभाग्य से इस बार उसे सफ़लता मिल गई।उसे स्कूल में शिक्षिका की नौकरी मिल गई।सुबह दश बजे रश्मि स्कूल जाती और शाम को पांच बजे ही घर आ पाती। लड़कियों को पढाने  में उसे बहूत मेहनत करना पड़ता था ।इतने मेहनत  करने के बाद भी उसे केवल चार हज़ार रुपये मिलते थे और आठ हजार पर दस्तखत करना पड़ता था।यही बात उसे खलती थी परन्तु कुछ कह नहीं पाती। नौकरी  खो देने का डर था।  हेड मिस्ट्रेस छोटी छोटी बात पर नौकरी से निकल देने की धमकी देती रहती थी। यह तो रश्मि के लिए असहनीय था लेकिन मज़बूरी में सह लेती थी। अब उसको धीरे धीरे समझ में आने लगा कि प्रकाश के जिन बातों से वह चिड्ती थी उसमे वास्तव में चिड़ने की कोई बात ही नहीं थी।प्रकाश ने कभी भी उसे किसी बात के लिए  ऐसे मजबूर नहीं किया।उसे पैसे  का महत्त्व भी समझ में आने लगा था।  अधिक थकावट के कारण उसे रात को लेटते ही नींद आ जाती थी परन्तु एकबार नींद खुली तो फिर आने का नाम नहीं लेती।तब अनायास ही उसे प्रकश की याद आ जाती थी ।ऐसी ही एक गहरी रात  में जब उसकी नींद खुली  तो उसे याद  आया, प्रकाश चांदनी  रात में घुमना पसंद करता था। "वह पूर्णिमा की रात्रि थी।आधी रातके बाद उसने मुझे  जगाया था " -वह याद करने  लगी

 प्रकाश ने कहा ,"उठो ,चलो बाहर घूम आएँ।" 

" इतनी रात को बाहर क्या करने जाएँ ?" मैंने पूछा।

 "अरे देखो तो कितनी निर्मल चांदनी  फैली हुई है चारो ओर ,कितना सुन्दर ,कितना रोमांटिक वातावरण है !! तुम्हे अच्छा नहीं लगता ?"  

मुझे जाने की इच्छा नहीं थी परन्तु मैं उसके गयी थी  और लान में जाकर उसके गोद में सर रखकर मैं लेट गई थी । बालों को सहलाते हुए प्रकाश ने कहा था, "  रश्मि यदि रात में चांदनी नहीं होती तो रात अँधेरे में डूबी रहती और मेर जीवन में यदि 'रश्मि ' नहीं होती तो मैं  भी अँधेरे में भटकता रहता।" मुझे बहुत अच्छा लगा था यह् सुनकर ।मैं आँख मूंदकर तहे दिल से आनंद की अनुभूति को महसूस कर रही थी। तभी वह  दोनों हाथों  से मेरे चेहरे को पकड़कर मेरे ऊपर झुक गया था। मैं झटपट उठ बैठी थी और हलकी सी झिडकी भी  दी , "कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा ?" और मैं भागते भागते कमरे में आगई थी।मेरे पीछे पीछे प्रकाश भी भाग कर कमरे में आगया था। वो चाँदनी रात मेरी जिंदगी में एक अविस्मरनीय रात थी।बातों बातों  में और सरारतों में रात बीत गई थी।  

कभी दार्शनिक ढंग से प्रकाश कहता ,"रश्मि तुमने कभी सोचा है कि  इस दुनिया में कौन ,कितने दिन किसी का साथ देता है ?"

"नहीं तो ,यह कैसा प्रश्न है ?"

प्रकाश ने आगे कहा ," देखो एक समय ऐसा आता है जब चारों तरफ रिश्तेदार ही रिश्तेदार होते है फिर भी अकेलापन महसूस होता है। तब लगता है  काश ! कोई ऐसा होता जो अनकही बातों को समझ जाते। "

"मैं तो हूँ तुम अकेले कैसे हो ? तुम तो कहते हो पति -पत्नी   मिलकर एक ईकाई बनती है। "

" इसी ईकाई में  से अर्थात पति -पत्नी में से कोई एक अगर चला जाय तो दुसरे के लिए छोड़ जाता है सिर्फ अँधेरा।"

  आज रश्मि को भी ऐसा महसूस हो रहा था की उसके आगे सिर्फ अँधेरा ही अँधेरा है। अकाट्य अँधेरा। " शायद प्रकश को भी ऐसा लग रहा होगा " उसने सोचा।

   वह किस उद्येश्य से आई थी ? क्यों आई थी  ? किसके भरोसे आई थी ? किसी भी प्रश्न  का उत्तर नहीं मिला।उसे लगा  चारो तरफ से प्रकाश  लुप्त हो चूका है, बचा है केवल अँधेरा, इस अँधेरे में वह अकेली है।सच में, प्रकाश के  बिना  जीवन में अँधेरा के सिवाय और कुछ नहीं बचा।  भाई , भाभी के लिए तो वह बिलकुल परायी हो गई है।

कई दिनों से सोच रही थी की प्रकाश को एक पत्र लिखे ,परन्तु लिखे तो क्या लिखे ?आते वक्त उसके प्रश्नों का ढंग से जवाब भी नहीं दिया था। यही सोच विचार में पड़ी थी कि माँ ने एक लिफाफा लाकर उसे दिया।अक्षर देखकर उसकी धड़कन बढ़ गई।अपने कमरे में जाकर अन्दर से दरवाज़ा बंद कर क्या।लिफाफा को जल्दी जल्दी फाड़कर उसके अन्दर से पत्र निकाल  कर पढने लगी।    

               प्रिय रश्मि,

                               आशा  है तुम अच्छी होगी। इस लम्बी अवधि में तुमने अपने आपको संभाल  लिया होगा और शांति से भविष्य के बारे में विचार किया होगा। मुझे नहीं मालुम की तुमने क्या निर्णय लिया है।मेरे  साथ रहते हुए कई अवसर पर तुम्हे बहुत कष्ट हुआ होगा परन्तु सच मानो मेरी इरादा कभी भी तुम्हे कष्ट पहुँचाने  की  नहीं थी ।इसके वावजूद भी यदि जाने अनजाने में मैं तुम्हे दुःख दिया है तो मुझे क्षमा कर देना। तुम्हारे जाने के बाद जिंदगी रुक सी गई है। खैर,तुम जहाँ रहो खुश रहो  , यही कामना है  मेरी। मेरा तबादला इंदौर हो गया है। दश जनवरी को रात्रि पौने नौ बजे बिलाशपुर -इंदौर एक्सप्रेस से मैं जा रहा हूँ ।वहाँ जाकर मैं अपना पता तुम्हे भेज दूँगा ।अपनी  निर्णय की सुचना उस पते से भेज देना।अगर तुम कहो तो मैं तुम्हे लेने आ जाऊँगा।अपना ख्याल रखना।

तुम्हारे इन्तजार में 

तुम्हारा 

प्रकाश .

           पत्र पढ़कर पिंजड़े में बंद पंछी की भांति रश्मि छटफटाने  लगी। अब क्या करे ?आज आठ तारीख है। दश को वह जा रहा है।  अभी तक तो वह द्विविधा  में थी परन्तु  प्रकाश के पत्र ने तो उसे रास्ता दिखा दिया।उसने भी जल्दी निर्णय ले लिया।एक टुकड़ा कागज़ में कुछ लिखा और लिफाफा में बंद करके रख दिया।  

                प्रकाश सुबह से ही पैकिंग में व्यास्त  था। वैसे तो उसके आफ़िस के दो सहायक पैकिंग का सभी काम कर रहे थे परन्तु उसे बार बार रश्मि  की याद आ रही थी।अगर रश्मि होती तो ख़ुशी कुछ और होती। पैकिंग समाप्त कर उसने सभी सामान दो सहयोकों के साथ स्टेशन रवाना कर दिया और खुद फ्रेश होने बाथ रूम में घुस गया ।फ्रेश होने के बाद सोफे पर बैठकर उसे लगा की कुछ छुट गया है।खाली घर जैसे उसके दिल में भी सूनापन घर कर गया। उसे ऐसे लगने लगा कि वह कुछ खोकर जा रहा है।वह आँख मूंद कर आराम करना चाहता था परन्तु आँख मूंदते ही एक चित्र उभर आया 'रश्मि ...रश्मि ..रश्मि  .......' उसने  अनुभव किया कि जब जब वह विशाल जन समूह के अन्दर से गुजरा, वहाँ  रश्मि की कमी महसूस हुई ,एक जोड़ी प्रेमाशिक्त आँखों कि कमी महसूस हुई। आज भी प्रकाश को वही अनुभूति  हो रही थी।  

             मनुष्य कभी कभी झूठे अभिमान में यह भूल जाता है कि जीवन की गाडी तभी आगे बढती है जब दोनों पहिये साथ साथ चलते हैं।यदि एक रुक जाती है तो दूसरा उसके चारो तरफ घुमने लगता है ,गाडी कभी आगे नहीं बढती।

              रश्मि और प्रकश के साथ भी यह बात शत प्रतिशत लागू थी।उनकी जीवन रूपी गाडी रुक गई थी।दोनों दिल से चाहते थे कि दोनों फिर से मिले पर अभिमान उन्हें मिलने नहीं दे रही थी। 

               आठ बीस पर गाडी आ गई। प्रकाश के आफ़िस के कुछ मित्र उन्हें छोड़ने आये थे।उनकी देखरेख में सहायकों ने सामान गाडी में चढ़ा दिया।प्रकाश भी सब सामान एक एक कर खुद देख लिया।गाड़ी छोड़ने का टाइम हो गया था। गाड़ी ने सिटी बजा दी थी।प्रकाश दोस्तों के गले मिलकर विदा होकर दरवाजे पर खड़ा हो गया। गाड़ी चलना शुरू ही हुआ था कि उसकी नजर दौड़ती हुई आती रश्मि पर पड़ी।एक हाथ में एक छोटी सी अटैची और दुसरे हाथ से साडी  सँभालती हुई आ रही थी।अचानक दोनों की आँखे मिली।जो कुछ कहना था शायद एक ही नज़र में दोनों कह डाले।रश्मि दौड़कर गाड़ी के पास आई तो प्रकाश ने हाथ बढ़कर उसे गाड़ी के अन्दर खींच लिया। उसे पकड़कर प्रथम श्रेणी के केबिन में जाकर दरवाज़ा अन्दर से बंद कर दिया।

प्रकाश ने रश्मि का हाथ अपने हाथ में लेकर  कहा ,"रश्मि मुझे पूर्ण विश्वास था कि तुम मुझे गलत नहीं समझोगी " 

"फिर तुम लेने क्यों नहीं आये ?"  रश्मि ने अभिमान में पूछा 

' शायद यही मेरी गलती थी " कहते  हुए उसने रश्मि को अपनी ओर खींच लिया तो रश्मि अनायास ही उसके सीने में अपना मुहँ छुपाकर फफक कर रो पड़ी।अभिमान के बादल आंसू बनकर बह गए। दिल का आकाश निर्मल हो चूका था।  बहुत दिनों के बाद वे एक दुसरे के  दिल के सच्चे   धड़कन महसूस कर रहे थे।

           गाड़ी तब तक गति पकड़ चुकी थी.फिर अपनी गति की यौवन में हिलती डुलती मस्ती में आगे बढती गई अपनी मंज़िल की ओर।

 

कालीपद "प्रसाद "
©सर्वाधिकार सुरक्षित

 

 

शनिवार, 9 मार्च 2013

अहम् का गुलाम (दूसरा भाग )

 

इसके बाद प्रकाश हमारे घर अक्सर आने लगा। थोड़ी ही दिनों में हम दोनों में मित्रता हो गई।हम हर विषय पर खुलकर चर्चा करते थे।लेकिन उसे मेरी चंचलता ,अधिक बात करना पसंद नहीं था।   हर समय टोकता था ,"रश्मि ऐसा नहीं करना चाहिए, ....  ऐसा नहीं बोलना चाहिए ...सोचकर बोलना चाहिए।" मुझे गुस्सा तो आता था परन्तु मैं चुप रहती थी क्यकि मैं उसे चाहने लगी थी। मैं उसे किसी भी हालत में खोना नहीं चाहती थी।  सोचती थी कि  समय के साथ साथ सब ठीक हो जायेगा। एकदिन बातों ही बातों में प्रकाश ने कहा था ,"रश्मि तुम बहुत खुबसूरत हो लेकिन यदि तुम अपनी तुनक मिजाजी छोड़कर थोडा  गंभीर हो जाओगी  तो और खुबसूरत हो जाओगी।"   प्रकाश ने आगे कहा था ,"बुरा न मानना ,तुम्हारा उग्र स्वाभाव और  असहनशीलता तुम्हारे वैवाहिक जीवन में कटुता ला सकता है। "  तब मैंने हंसकर जवाब दिया था ,"अजी साहब ! कटुता और मधुरता  दोनों ही चाहिए जिंदगी में  जायका  बदलने के लिए।एक रस से  जी उब जायगा।" प्रकाश ने कुछ नहीं कहा था ,केवल मुस्कुरा दिया था।

                  उसके चार वर्ष बाद मेरा व्याह प्रकाश से हो गया था।उसमे मेरी ही आग्रह ज्यादा थी।माँ राजी नहीं थी परन्तु मेरी ही जिद के कारण पिताजी ने माँ को समझा बुझा कर राजी किया था। विवाह के बाद दो वर्ष बड़ी ख़ुशी से बीत गए।  उसके बाद बात बात पर टकराव होने लगा। मेरी हर बात उन्हें कांटे जैसे चुभने लगी । हर बात पर टोकते ,कबतक मैं चुप रहती ? मैं भी पढ़ी लिखी हूँ। चाहूँ तो नौकरी कर सकतीहूँ।आजादी से रह सकती हूँ ................

रश्मि करवट बदल कर लेट गई।उसके मन में कभी विद्रोह तो कभी संदेह घर कर रहा था।कभी सोचती ,  "शायद प्रकाश उस से छुटकरा पाने का बहाना ढूढ़ रहा है, ,लेकिन क्यों ? क्या वह दूसरी शादी करना चाहता है ? क्या वह किसी और को चाहने लगा है ?" कई प्रश्न एक साथ उसके दिमाग में कौंध गए। पर इन प्रश्नों का कोई तार्किक जवाब उसके  पास नहीं था।"तो फिर क्या गृह कलह ही एक मात्र कारण है ?" रश्मि सोचने लगी।

"लेकिन इस झगडे में केवल मैं ही तो दोषी नहीं हूँ।वह भी तो जिम्मेदार है।  एक बात कहो तो दश उपदेश  सूना देता है। अभी उस दिन की बात है जब मैं कुछ ब्लाउज पीस ,एक साडी ,एक शर्ट पीस और कुछ जरुरत की चीजे लाई तो जनाब कहने लगे ," अरे इतने सारे चीजों की क्या जरुरत है ?तुम्हारे पास तो कई नई साड़ियाँ हैं ,मेरे पास कई कमीजें हैं। तुम्हे कई बार कहा कि  मित व्यायी बनो परन्तु तुम्हारे समझ में तो बात आती नही।" कहते हुए बाहर निकलकर बरांडे में  जाकर बैठ गए।मुझे भी गुस्सा आ गयी । मैं भी पीछे पीछे गई। गुस्से में मैंने कहा ," मेरी माँ  बाजार से अपने लिए कई साड़ियाँ एकसाथ लाती थी लेकिन मेरे पापा ने मम्मी को कभी कुछ नहीं कहा और तुम हो कि मुझे हर बात पर लानत देतो हो।"

तब प्रकाश ने कहा था ,"तुम्हारा मतलब तुम्हारी मम्मी ने तुम्हे फ़िज़ूल खर्ची का पाठ पढाया है? मुझे नहीं लगता । खैर ,मेरे  पास फ़िज़ूल खर्च के लिए पैसे नहीं है। "

"तुम कंजुष हो , शादी के पहले नहीं सोचा था कि बीबी के आने से खर्चा बढ़ जाएगी"मैंने गुस्से में उबलते हुए कहा।

" अजी यहीं तो मैं गलती कर बैठा, बीबी पाने के चाह में मैं ................."   प्रकाश की बात काटकर रश्मि ने कहा ,"मैं बीबी नहीं हूँ तो क्या हूँ ?"

"तुम पूरी बात तो सुनती नहीं हो और  हर बात का गलत अर्थ निकाल लेती हो। " कहकर प्रकाश घर से निकल गया था। 

         रश्मि को नींद नहीं आ रही थी। करवट बदलते बदलते  सुबह का पांच बज गया था । "मेरी कोई इज्जत ही नहीं यहाँ।अब मैं यहाँ नहीं रहूंगी

।"  उसने निर्णय ले लिया ।  सुबह उठते ही उसने जल्दी जल्दी जरुरत की चीजें सूटकेस में भर लिया। नौकर को कहकर टेक्सी भी बुलवा लिया। टेक्सी की आवाज सुनकर प्रकाश की नींद टूट गई।जबतक  वह उठकर बाहर आया तबतक रश्मि तैयार होकर टेक्सी के पास पहुँच गई थी ।  प्रकाश हैरान था। उसने पूछा ,"रश्मि कहाँ  जा रही हो  ?"

"............."रश्मि ने  कोई जवाब नहीं दिया।

उसने रश्मि को फिर आवाज़ लगाया," रश्मि .............!,रश्मि ...........!!,

रश्मि ने एक पैर कार के अन्दर डाल कर मुड़कर देखा तो प्रकाश ने पूछा ,"कहाँ जा रही हो ?"

"माँ के पास " रश्मि ने जवाब दिया।  

"कब  आओगी ?"

"........." रश्मि ने कुछ नहीं कहा।  गाड़ी में बैठ गई और गाड़ी आगे बढ़  गई। प्रकाश दौड़ कर  गाड़ी को पकड़ने  की  कोशिश किया परन्तु देखते ही देखते टेक्सी आँखों से ओझल हो गई।  `उसने एक दीर्घ स्वांस छोड़ा और  कुछ देर निर्वाक वहीँ खड़ा  रहा ,फिर बरन्दे(बरामदे ) में आकर एक कुर्सी पर बैठ गया।

"श्यामू चाचा " उसने बूढ़े नौकर को आवाज़ दिया।

"जी हुजुर " 

"बीबी जी ने तुमसे कुछ कहा था क्या  ?" 

"जी हुजुर, सुबह उठते ही मुझेएक टेक्सी लाने के लिए कहा , पूछने पर बताया कि जरुरी काम से मायका जाना है। "

"हूँ " उसने श्यामू से कहा, "अच्छा तूम जाओ। "

प्रकाश फिर जा कर लेट गया। बहुत सी बातें एक साथ उसके दिमाग में आने लगी लेकिन किसी भी बात पर विचार करने की स्थिति में वह नहीं था। वह शांति चाहता था अत: वह सोने की कोशिश करने लगा।

             रश्मि को मायके गए करीब पांच छै  महीने हो गए थे परन्तु न रश्मि ने कोई पत्र लिखा न प्रकश ने। कौन पहल करे ?यही समस्या थी। एक ही शहर में रहते हुए भी बहुत दूर थे। रश्मि जब से गयी थी , तब से समाचार पत्र और रोजगार समाचार के एक एक कोना  छान डालती थी ।जो भी विज्ञापन उसके योग्यता के अनुसार उपयुक्त लगता ,उसके लिए आवेदक करती।  वह वनस्पति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएट थी, फिर भी नौकरी पाने में सफलता नहीं मिली। यह  एक विडम्बना ही है आज के पीढ़ी के लिए । भाई भाभी पहले ही उस से नाराज थे , माँ और पिताजी का व्यव्हार भी उसके प्रति धीरे धीरे बदल गया था। विशेषकर माँ का व्यव्हार जैसे रुखा हो गया था। बात बात में कहती "तुम्हारे डैडी  ने तुम्हे सर पर चढ़ा रखा है।" कभी कहती ,"तुम्हारी नादानी के वजह से  वेचारा प्रकाश भी परेशां है। प्रकाश तुम्हारा पति है, कुछ अगर बोल भी दया तो क्या हुआ ? पतिपत्नी में कभी कभी छोटी  मोटी  ख़ट  पट चलती रहती है।इस से कोई रिश्ते थोड़े तोड़ते हैं ? चलो मैं तुम्हे उसके पास छोड़ आती हूँ,उसको समझा भी दूंगी  । " रश्मि को ये बाते मानो सुई चुभो देती ,सोचती ..."यदि नौकरी मिलजाए तो  इनसे भी अलग हो जाउंगी।"                                               ( क्रमश :)

 

कालीपद "प्रसाद"

सर्वाधिकार सुरक्षित  

गुरुवार, 7 मार्च 2013

अहम् का गुलाम (भाग एक )

 आधुनिक युग में यद्यपि शिक्षा के  प्रचार प्रसार से जागरूकता बढ़ी है परन्तु दांपत्य जीवन में  जो धैर्य ,सहनशीलता और ठहराव चाहिए  उसकी कमी कदम कदम पर दिखाई देती है। आज कल नवदम्पति में समझदारी और समझौता की कमी है।फलस्वरूप बात तलाक  तक पहुँच जाती है। समय रहते यदि दोनों में से एक को भी सद्-बुद्धि आ जाये तो परिवार बच जाता है . देखिये कैसे ...........एक कहानी

                                    "अहम् का गुलाम " 

 

रश्मि ने कलाई में बंधी घडी देखी।रात्रि  के तीन बज रहा था।चारो तरफ निस्तब्तता  छायी हुई थी।रश्मि को छोड़कर दुनियां में शायद सभी नर,नारी ,बाल ,वृद्ध  गहरी नींद में सो रहे थे लेकिन उसकी आँखों में नींद नहीं थी।पास वाले पलंग पर प्रकाश  भी गहरी नींद में  सो रहा था।  लेकिन उसके दिमाग में प्रकाश के एक एक शब्द गूंज रहा था।स्वभाव से शांत ,सहनशील और मितभाषी प्रकाश ने रात को सोते समय शांत स्वर में ही कहा था ," रश्मि , सोचता हूँ कि पति-पत्नी का अर्थ एक छत के नीचे रहना नहीं है वल्कि उस से आगे है कुछ ।पति-पत्नी एक दुसरे के सुख दुःख के भागीदार होते हैं।  दोनों एक दुसरे के पूरक होते हैं।दोनों मिलकर ही एक पूर्ण व्यक्ति बनता है।इस पूर्णता के लिए यह जरुरी है कि पति-पत्नी एक दुसरे को अच्छी तरह समझने  की कोशिश करे। दुर्भाग्य से हम दोनों की प्रकृतियाँ ही भिन्न भिन्न है।शायद इसमें तुम्हारा या मेरा दोष कम है बचपन का परिवेश का प्रभाव ही इसके लिए जिम्मेदार है। "

           कुछ देर रुककर फिर कहा  ,"रोज रोज की झगडे भी  जीवन में कटुता का बिष  घोल रहा है ,तूम्हारे भी और मेरे भी।  इस नारी मुक्ति वर्ष में क्यों न हम दोनों तलाक  लेकर इस बिष  मय जीवन से मुक्त हो जाएँ ?" प्रकाश क्षणभर रूककर रश्मि की ओर देखा। रस्मी जो अभी तक आँख बंद किये हुए प्रकाश की बाते सुन रही थी, विस्फारित नयनों से प्रकाश की ओर ऐसे देखने लगी मानो उसके कान बादल के गर्जन से बहरे हो गए  और  आँखे बिजली की चमक से चौधियां गई हो।वह शिथिल हो गई थी।कुछ नहीं बोल पा रही थी। प्रकाश ने ही आगे कहा ,"इसमें न तुम मेरे ऊपर कोई दोषारोपण करोगी न मैं तुम पर।चूँकि दोंनो की प्रकृतियाँ ही अलग अलग है  इसलिए  दोनो  स्वेच्छा से इस बंधन से मुक्त हो जायेंगे वैसे, जैसे दो पथिक पथ में मिलते है ,कुछ् देर साथ चलते हैं और फिर चौराहे पर आकर अपने अपने पथ पर चल पड़ते  हैं। हम दोनों भी आज जीवन के चौराहे पर खड़े हैं। बिछुड़ने का दुःख तो होगा परन्तु  चौराहे पर खड़े रहना वुद्धिमानी नहीं है।" प्रकाश ने दीर्घ स्वांस छोड़कर कहा ,"गहन रात्री में जब तुम्हारा गुस्सा उतर जाए ,चारो तरफ शांति का वातावरण हो , तब निष्पक्ष होकर सोचना इस विषय पर और अच्छी तरह सोच समझकर मुझे बता देना। जो तुम चाहोगी वही होगा ,अंतिम फैसला तुम्हे ही करना है । " प्रकाश  करवट बदल कर लेट गया और न जाने कब उसकी नींद लग गई।रश्मि के दिमाग में तो प्रकाश की आवाज गूंज रही थी।उसके धमनियों में जैसेकुछ समय के लिए रक्त का संचार रुक गया था।वह स्वयं नारी मुक्ति संगठन की एक सक्रिय सदस्या थी।कई अवसरों पर उसने तलाक  पर व्याख्यान दिए ,दूसरों को तलाक  के लिए प्रोत्साहित भी किया ,परन्तु उसे अपनी तलाक की बात सुनकर उसका रक्त जम  गया था ।

                     रात्रि के चतुर्थ प्रहर समाप्त  होने वाला था परतु रश्मि  प्रकृतिस्थ नहीं हो पायी।सिरहाने पर रखे गिलास से उसने पानी पिया।थोडी देर  और आँख मुंद कर लेटी रही, मन में उठे तूफान को शांत करने की कोशिश करने लगी परन्तु उसके दिमांग में प्रकाश के ये शब्द गूंज रहे थे "........हम मुक्त हो जायेंगे वैसे ही ,जैसे दो पथिक पथ में मिल जाते हैं, कुछ दूर साथ साथ चलते  हैं ,फिर चौराहे पर आकर अपने अपने पथपर चल पड़ते है।" सच तो है .......,वे दोनों भी तो पथिक हैं ......।जीवन पथ पर पहली बार अपने ही घर में मिले थे ,कुछ दिन साथ रहे -बिछुड़े -फिर मिले।रश्मि सोचने लगी .....।स्मृति रेखा के सहारे वह अतीत में पहुँच गयी।उसके आँखों के सामने अपने जीवन की   हर बीती हुई घडी  चलचित्र की भांति गुजरने लगी। पिताजी सेना में मेजर थे।अत्यधिक तबादला के कारण मेरी पढ़ाई  में  क्षति उठाना पड़ता  था ,इसलिए मुझे कालेज हॉस्टल में भर्ती कर दिया गया।   उन दिनों मै बी . एस . सी . फ़ाइनल की परीक्षा देकर घर आई हुई थी।तभी एक दिन हमारे घर कुछ मेहमान आये।    पिताजी ने उन्हें बड़े आदर से बैठाया।मेहमानों में एक सुन्दर ,शांत और मितभाषी युवक भी था।जब पिताजी ने परिचय कराया तब पता लगा कि वह बी .ई .फ़ाइनल का छात्र था ।पापा ने कहा ,"यह  प्रकाश है।वह  प्रोफ़ेसर साहब का बेटा  है , बी .ई .फ़ाइनल का छात्र है ,और हमेशा कक्षा में प्रथम आता है। वह भी छुट्टी में घर आया हुआ है ।"*

                                                              (  क्रमश:)

कालीपद "प्रसाद "

सर्वाधिकार सुरक्षित