एक कस्बे में एक साहूकार रहता था।उनके तीन बेटे थे। साहूकार ने अपने जीवन में गरीबी के दिन देखा था । एक एक पाई के लिए खून पसीना एक करना पड़ता था। उसने यह सोच लिया था कि वह अपने बच्चों को इस गरीबी से मुक्ति दिलायेगा । इसलिए अपनी छोटी सी दूकान से जो भी अर्जित होता था उसमें से केवल आधा ही अपने घर के खर्च के लिए उपयोग करता था बाकि सब अपने बेटों की पढाई लिखाई के लिए जमा करके रखता था। बच्चे बड़े होते गए। उनके रहन- सहन , पढ़ाई -लिखाई के खर्चे भी बढ़ते गए। साहूकार ने अपने संचित कोष से सबकी मांग पूरी की।सबको अपने अपने मन पसंद शिक्षा प्राप्त करने में पूरा सहयोग दिया, इस उम्मीद के साथ कि " बच्चे बड़े होकर अपने अपने पैर पर खड़े हो जायेंगे।किसी को किसी के सामने हाथ फ़ैलाने की जरुरत नहीं होगी। सब अपने अपने परिवार में खुश रहेंगे। तीनो भाइयों के बाल बच्चे होंगे , हमारा एक भरा पूरा परिवार होगा। उस परिवार का ज्येष्टतम सदस्य होंगे हम, मैं और मेरी पत्नी । हमें खूब आदर ,सम्मान मिलेगा। "
बड़ा बेटा मोहित एल .एल .बी . की पढ़ाई समाप्त कर एडवोकेट बन गया। जिला अदालत में प्राक्टिस करने लगा .वहीँ एक घर किराये पर लेकर रहने लगा। शनिवार को घर आ जाता था और सोमवार को चला जाता था । इसके बाद दूसरा बेटा रोहित बी इ पूरा करते ही उसे नौकरी मिल गई। वह भी बाहर दुसरे शहर चला गया। तीसरा बेटा रोनित का एम् बी बी एस पूरा होने पर शहर में क्लिनिक खोल लिया। तीनो शनिवार को माँ बाप से मिलने घर आते और कोई रविवार या कोई सोमवार अपने अपने कार्यस्थल पर पहुँच जाते।
साहूकार ने अब अपने बेटों के विवाह के लिए योग्य पात्रियों का खोज करने लगा। इसमें उन्हें ज्यादा परेशानी नहीं हुई। उन्होंने एक एक कर तीनो बेटों की शादी कर दी। सभी बहुएं अपने अपने पति के साथ चली गई तो घर में रह गए साहूकार और धर्मपत्नी सविता। जब सब चले गए तो साहूकार उदास हो गए परन्तु यह सोचकर कि बच्चे काम के लिए बाहर तो जायेंगे ही ,घर मे बैठे तो नहीं रह सकते ,इसमें दुःख की क्या बात है ? वे लोग शनिवार और दुसरे छुट्टियों में तो आयेंगे ही ,तब जी भरके सबसे बात करेंगे।
शाहुकार को भरपूरा परिवार अच्छा लगता था।उसने उम्मीद किया था कि बच्चे अब उनसे आराम करने के किये लिए कहेंगे। . चलकर उनके साथ रहने के लिए कहेंगे। अब दिन भर दूकान में बैठकर बूढी हड्डी में दर्द होने लग जाता है। शामको ठीक से खड़ा भी नहीं हो पाता है । परन्तु हाय रे नियति ! साहूकार की आराम की बात तो दूर , महीनो बीत जाता कोई बेटा झांक कर भी नहीं देखता, न फोन पर हालचाल पुछता।सब अपने अपने दुनिया में मस्त हो गए। साहूकार की पत्नी जब कभी फोन करती तब एक ही जवाब मिलता ,"काम बहुत है इसलिए नहीं आ पा रहे है।"सभी लोग काम में इतना व्यस्त हो गए कि माँ बाप के हालचाल पूछने का भी समय नहीं है, यह बात साहूकार को हजम नहीं हुआ।वह कुछ नहीं कहता ,मन मसोस कर रह् जाता।उसे अकेलापन महसूस होने लगा।वह अवसाद ग्रस्त होने लगा।
दूकान अक्सर बंद रहता था क्योकि साहूकार की मानसिक पीड़ा और बुखार ने उन्हें बहुत कमजोर बना दिया था।जब शाहूकार शय्याशायी हो गए तब साहूकार की पत्नी सबिता ने छोटे बेटे रोनित को फोन कर बताया कि उसके पिता बीमार है। रोनित पिता को देखने आया और कुछ दवाइयाँ देकर माँ को कहा , "इन दवाइयों को सुबह, दोपहर और शाम खाना खाने के बाद खिलाओ, आराम हो जाएगा।खून के परिक्षण के बाद पता चलेगा कि बुखार का कारण क्या है। रोनित अपने क्लिनिक लौटकर अपने दोनों भाइयों को फोन से पिताजी के बिमारी के बारे में बताया। यह भी बताया कि अगले रविवार को वह फिर घर जा रहा है।
रविवार को सबसे पहले रोनित अपनी पत्नी के साथ आया। पिताजी का ब्लोड़ रिपोर्ट भी साथ लाया था। उसने पिता जी को बताया की रक्त की कमी है। साथ में उसने दवाइयाँ भी लाया था। उसे कब कब खाना है यही बता रहा था अभी मोहित और रोहित भी आ पहुचे। दोनों ने रोनित से पिताजी के बारे में पूछा। रोनित ने बताया कि उनको खून की कमी के साथ स्नोफिलिया भी है। इसकी वजह तकलीफें ज्यादा है परन्तु अभी पहले से अच्छा है। साहूकार को अच्छा लगा कि उनकी बीमारी की बात सुनकर तीनों बेटे दौड़कर उन्हें देखने आये लेकिन यह ख़ुशी ज्यादा देर तक रह नहीं पाई। .
रोनित ने कहा ,"पिताजी को आराम करने दो, आप सब पास वाले कमरे में जाकर बैठो। सब लोग दुसरे कमरे में जाकर बैठ गए। सभी बहुएं भी उपस्थित थी। उन सबको मुखातिब होकर साहूकार की पत्नी ने कहा ,"बेटे अब तुम्हारे पिताजी दूकान ठीक से चला नहीं पा रहे है। इस उम्र में दिन भर एक जगह बैठे रहना कष्ट दायक है। हाथ पैर फुल जाता है। कमर के दर्द से परेशान हैं। उनकी इच्छा है कि वह दूकान बंद कर दें और तुम लोगो के पास बारी बारी से रहे। तुम लोग क्या कहते हो।"
इसपर रोहित ने कहा ,"मैं तो शहर में एक कमरा वाला घर किराया में लेकर रहत हूँ। वहां तो जगह नहीं है और दो या तीन कमरे वाला घर का किराया इतना ज्यादा है कि मैं ले नहीं सकता. इसलिए आपलोग भैया के पास या रोनित के पास रह सकते हैं। "
मोहित, जो एडवोकेट है, कहने लगा ," मेरा प्राक्टिस ठीक से चल नहीं रहा है। इसलिए हमेशा कडकी रहती है। रोनित का क्लिनिक अच्छा चल रहा है।" रोनित दोनों भाइयों की ररफ देखा फिर बोला ,"भैया ,मेरा क्लिनिक तो अभी अभी शुरू हुआ है ,पास में बहुत पुराने क्लिनिक हैं। लोग ज्यादा उधर जाते हैं। अभी मुझे पैर जमाने में समय लगेगा।"
साहूकार पास के कमरे में लेट कर बच्चों की सारी बातें सुन ली।उनको बड़ा दू:ख हुआ कि जिन बच्चों के लिए सभी सुख सुविधायों को त्यागकर उनके भविष्य संवारने लगे थे ,वे आज उनकी जिम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं है , सब अपनी अपनी लाचारी बता रहे हैं। बच्चों की रवैया देखकर दिलको अचानक , अप्रत्याशित गहरी चोट लगी। दिल रो उठा, आँखों के कोने से दो बूंद आंसू आहिस्ता आहिस्ता लुडक गए। साहूकार के आँख पर पुत्र मोह की जो पट्टी बंधी थी ,मन को कड़ा करके उसने उसे हटा दिया। वह धीरे धीरे उठ बैठा और आवाज देकर सबको अपने कमरे में बुला लिया।
जब सब लोग आ गए तब साहूकार ने कहना शुरू किया ," बेटे तुम सबको बहुत धन्यवाद !मेरी बीमारी की बात सुनकर तुम लोग अपने अपने काम धंधे छोड़कर मुझे देखने आये। तुम लोगो को हमारे बारे में चिंता करने की जरुरत नहीं है। तुम्हारी माँ ने जो कुछ कहा उसपर ध्यान मत देना। माँ ,बाप तो होते ही कोल्हू के बैल जैसे।कोल्हू के बैल को जब घानी में जोता जाता है तब उसके आँखों पर काली पट्टी बाँध दी जाती है ताकि वह यह देख न पाए कि कितना तेल निकला है क्योंकि उसके दिल में भी तेल पीने की इच्छा होती है। इसलिए तेली उसके आंखों की पट्टी खोलने के पहले तेल अन्य पात्र में स्थानांतरित कर देता है।जब बैल की आँख की पट्टी खुलती है तो वह देखता है पात्र में तो तेल नहीं है या नहीं के बराबर है।इतना मेह्नात् करने के बाद भी विन्दुमात्र तेल भी नहीं निकला ........... ?'"
साहूकार एक लम्बी स्वांस छोड़कर फिर कहना शुरू किया ,"माँ बाप के आँखों पर भी पुत्र-पुत्री पेम की पट्टी बंधी रहती है।प्यार ,मुहब्बत में वे यह सोचते रहते है की ये बच्चे ही तो हैं जो हमें वृद्धावस्था में प्यार देंगे ,सम्मान देंगे,बुढ़ापा का लाठी बनकर हमें सहरा देंगे। परन्तु आँखों की पट्ठी जब खुलती है तो पता लगता है कि जिसे वे प्यार समझ कर बच्चों में लुटा रहे थे ,वह प्यार है ही नहीं। बच्चे तो उसे माँ बाप का फर्ज मानकर भूल जाते है। बच्चों के पास माँ बाप से बात करने का न तो समय है ,न दिल में प्यार या आदर की भावना।इस हालत में माँ बाप का कर्मफल का पात्र खाली के खाली रह जाता है .न उसमे किसी का प्यार होता है ,न आदर सम्मान ,होता है केवल अवहेलना और एकाकीपन। हुए न माँ बाप कोल्हू के बैल ?"
खैर ,अच्छा लगा ,तुम लोग आये और ईश्वर ने ही तुमलोगों के माध्यम से मेरी आँखों की पट्टी खोल दी। वास्तव में "आशा ' "उम्मीद" नामक बिमारी ने मुझे जकड लिया था। है तो यह मानसिक बीमारी लेकिन मेरे मन के साथ साथ शरीर को भी बहुत कमजोर और पंगु बना दिया था। मन से जब मैंने इन बिमारियों को निकाल बाहर फेंका तो मुझे अच्छा लगने लगा है। काम करने का उत्साह पैदा हो रहा है। नये सिरे से जिंदगी जीने की इच्छा पैदा हो रही है। तुम लोग हमारी चिंता मत करो। जाओ अपने अपने काम में लग जाओ। कभी कोई जरुरत होगी तो हम तुम्हे बता देंगे। अब मुझे थोडा आराम करने दो।" कहकर साहूकार लेट गया।
बड़ा बेटा मोहित कुछ कहना चाहता था परन्तु डा .रोहित ने इशारे से मना कर दिया और सबको बाहर जाने के लिए कहा। धीरे धीरे सब निकल कर पास वाले कमरे में जाकर बैठ गए। कमरे में शांति छाई हुई थी। किसी ने कुछ नहीं कहा। बच्चों को अपनी गलती का एहसास हो चूका था परन्तु क्या करे समझ नहीं पा रहे थे। माँ ने बच्चों से कहा ,"तुम लोग अभी जाओ ,बाद में मैं तुम्हारे पिताजी से बात करुँगी। बच्चों ने माँ से वादा किया की वे अब हर सप्ताह बारी बारी आया करेंगे और पुरे दिन उन लोगों के साथ रहेंगे।
साहूकार के गृहस्थी में फिर से एकबार खुशियाँ दस्तक देने लगी थी। अब हर शनिवार कोई बेटा घर आ जाते थे और पूरा रविवार उनके साथ बिताते थे । साहूकार की एकाकीपन दूर होने लगा। वह खुश रहने लगा। साहूकार दूकान में एक नौकर रख लिया था । लेन देन , हिसाब किताब सब वही करता था। साहूकार केवल पैसा लेने का काम करता था । सप्ताह में एक दिन वह वृद्धाश्रम जाकर सभी आश्रमवासी का एक दिन का भोजन का प्रबंध दूकान के आमदनी से करने लगा।आश्रम वासियों से घुलमिल कर बात करने में शाहुकार को बहुत आनंद आता था। शाम को जब पति पत्नी घर लौट आते तो उन्हें मन की शांति मिलती यह सोचकर कि यह काम "आशा -उम्मीद" से परे है इसलिए इसमें न दू:ख है न धोखा होने की कोई भय है।
"आशा -अपेक्षा -उम्मीद ", जब पूरा नहीं होता तो दू:ख् होता है। इनसे जो मुक्त है वह सुखी है।
रचना :कालीपद "प्रसाद"
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18 टिप्पणियां:
बहुत ही शिक्षाप्रद एवँ भावनात्मक रूप से सशक्त कहानी ! वृद्धावस्था में किसीकी मुखापेक्षा ना करनी पड़े वही ठीक है ! सुंदर कहानी !
बेहद शिक्षाप्रद कहानी ।
सुन्दर शिक्षा प्रद कहानी.देर आयद दुरुस्त आयद. बच्चों को देर से समझ आ गयी यह भी अच्छा हुआ.पर बुढ़ापे में किसी को ऐसी नोबत न आये तो अच्छा
कठोर सत्य बयान करती अच्छी शिक्षाप्रद कहानी |
आशा
satya ko bayan karti kahani...par sabse accha iska ant laga.....hum sab ko aisi hi sooch rakhni chahiyeee
सत्य को परिभाषित करती कहानी
भाई जी गजब का लिख देतो हो आप
बहुत बहुत बधाई
बेहद उम्दा कहानी लेखन | मन्त्र मुग्ध हो गया | आभार
कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
Tamasha-E-Zindagi
Tamashaezindagi FB Page
बच्चों के प्रति प्यार-मोह की,आंखों पर पट्टी
और आशा-उम्मीद का रोग,यहीं दो कांरण
जो बुढापे को और भी असहाय कर देते हैं
अतः,समय की मांग है,वक्त के साथ हमें
अपने आप को पुनःढाल लेना चाहिये.
क्योंकि,ऐसा ही होता है.
BEST STORY
sahi bat.....
बहुत ही सार्थक संदेश देती बेहतरीन कहानी,आभार.
बहुत ही सार्गार्भित और प्रभावी अभिव्यक्ति...
सीख देती सारगर्भित सुंदर प्रस्तुति,,,,,
बहुत सुंदर दृष्टाँत, जहां अपेक्षा है गुलामी वहीं से जड जमाती है.
अर्थपूर्ण कथा
सुंदर सारगर्भित सार्थक संदेश देती बेहतरीन अभिव्यक्ति
भोले सीधे से लगें, जो कोल्हू के बैल |
कर देते विद्रोह ये, जब होते बिगडैल ||
बहुत ही यतार्थवादी सशक्त कहानी!
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