श्राद्ध क्या है ? श्रद्धा से किया गया कर्म को श्राद्ध कहते हैं | जिस काम में श्रद्धा नहीं है वह श्राद्ध नहीं है |
परिवार में किसी की मृत्यु होने पर उनकी आत्मा की शांति के लिए लोग श्रद्धा पूर्वक भगवान से दिवंगत आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं | इसके लिए उपयुक्त तो यही है कि इष्ट मित्र सब इकट्ठा होकर दिवंगत व्यक्ति के चित्र पर श्रद्धा सुमन अर्पित करे और आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करे | लेकिन समाज में आज कु-प्रथा का बोलबाला है | ब्राह्मण द्वारा दिया गया निर्देहानुसार पहले ब्राहमण द्वारा पूजा पाठ, मुंह माँगा उनको दान दक्षिणा, ब्राहमण भोजन, समाज के लोगों का भोजन कराना अनिवार्य हो गया है | संख्या में कोई पाबन्दी नहीं है | गाँव में तो हज़ारों की संख्या में लोग भोजन करते हैं |जिनके पास सामर्थ्य नहीं है, उन्हें कर्ज लेकर ये सब करना पड़ता है | क्या यह कार्य उस दुखी परिवार पर और अधिक दुःख लाद देना नहीं है ? इस हालत में क्या इस कार्य में गृहकर्ता की श्रद्धा रहती है ? कदापि नही |वरन इन क्रिया कलापों के प्रति अश्रद्धा पैदा होती है |
पहले श्राद्ध कार्य नहीं होते थे |अंतिम संस्कार के बाद लोग नहा धोकर घर जाते थे |अपने तरीके से शोक मनाते थे , प्रार्थना करते थे | महाभारत के अनुसार ,श्राद्ध का उपदेश सबसे पहले अत्री मुनि ने महर्षि निमिं को दिया था |महर्षि निमि ने ही श्राद्ध की शुरुयात की | बाद में अन्य ऋषियों ने भी अपने अनुयायियों को श्राद्ध करने का उपदेश दिया | धीरे धीरे यह चारो वर्णों के लोग करने लगे | पहले श्राद्ध में मृत आत्मा को भोजन अर्पण किया जाता था | फिर इष्ट -मित्र अतिथियों को भोजन करांने की प्रथा शुरू हुई | कालांतर में ज्योतिषियों ने पितरि पक्ष का भी निर्माण कर दिया जिसमें पितरों को अन्न दान अनिवार्य कर दिया |
यह कार्य भी ब्राह्मणों के माध्यम से करना है और उनको दान दक्षिणा देना है |
पितरो को स्मरण करके उनको श्रद्धा सुमन अर्पित करना अच्छी बात है | परन्तु यह बताना कि श्राद्ध न करने पर पितरों को यमलोक की यातनाएं भोगनी पडती है और श्राद्ध करने से अपने पुण्य के अनुसार स्वर्ग लोक, सूर्य लोक .गोलक धाम का सुख प्राप्त करते हैं | काल्पनिक लोको में पितरों के काल्पनिक सुखों का प्रलोभन देकर ,जीवित लोगों को अपार दुखों में धकेलना क्या धार्मिक कार्य है ? जो लोग धनी है, उनको तो फरक नहीं पड़ता है, परन्तु जो गरीब है,वे और गरीब हो जाते हैं |भारत में ८०% लोग अति गरीब, गरीब और सामान्य गरीब हैं | इस कु-प्रथा का सबसे अथिक पीड़ित भारत के यही ८०% लोग हैं | ये लोग अन्धविश्वासी भी हैं इसीलिए इन रीतियों का पालन अक्षरश: करते हैं |
मृत व्यक्ति के सुख के लिए जीवित व्यक्ति को प्रलोभन देकर दान दक्षिणा और सामूहिक भोजन के लिए भ्रमित करना कहाँ तक ठीक है ? क्या ये सब कार्य श्रद्धा का कार्य है या अश्रद्धया का कार्य है ?
श्राद्ध और श्राद्ध भोज बंद होना चाहिए |इसके बदले श्रद्धा सभा का आयोजन होना चाहिए जिसमे इष्ट मित्र श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे | इसमें ब्राह्मणों का कोई काम नहीं होगा और न कोई दान दक्षिणा होगा | स्वल्पाहार का आयोजन किया जा सकता है | सामर्थ्यवान यजमान चाहे तो भोज का पैसा किसी गरीब बच्चे की शिक्षा दीक्षा में खर्च कर सकते है |
कालीपद 'प्रसाद'
9 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-09-2020) को "सबसे बड़े नेता हैं नरेंद्र मोदी" (चर्चा अंक-3828) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १८ सितंबर २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सही कहा ।
जिन माता-पिताओं को जीते जी सन्तुष्टि मिल जाती है उन घरों में पितर पूजन कम होता है
"ये लोग अन्धविश्वासी भी हैं इसीलिए इन रीतियों का पालन अक्षरश: करते हैं."- पाँच सौ % सही कथन।
"श्रद्धा सुमन अर्पित करना अच्छी बात है."- श्रद्धा सुमन में श्रद्धा लोगों ने बिसरा कर बस सुमन की अर्थी ही अर्पित करना जान गए हैं हम।
प्रसंगवश -
महाभारत युद्ध होने का था, अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया, तो दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े, तो दुर्योधन द्वारा श्री कृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर कहा कि
’’सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’’
हे दुयोंधन - जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए।
लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के दिल में दर्द हो, वेदना हो।
तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए।
हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए है, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वाँ संस्कार अन्त्येष्टि है। इस प्रकार जब सत्रहवाँ संस्कार बनाया ही नहीं गया तो सत्रहवाँ संस्कार तेरहवीं संस्कार कहाँ से आ टपका।
इससे साबित होता है कि तेरहवी संस्कार समाज के चन्द चालाक तथाकथित ब्राह्मण नामक प्राणी के दिमाग की उपज है।
किसी भी धर्म ग्रन्थ में मृत्युभोज का विधान नहीं है।
हमें जानवरों से सीखना होगा कि जिसका साथी बिछुड़ जाने पर वह उस दिन चारा नहीं खाता है। जबकि 84 लाख योनियों में श्रेष्ठ मानव, जवान आदमी की मृत्यु पर हलुवा पूड़ी खाकर शोक मनाने का ढ़ोंग रचता है .. शायद ...
रूढ़िवादिता औऱ पाखंड को तोङने के लिए
प्रेरित करती सार्थक पोस्ट
बहुत बढ़िया
सामर्थ्यवान यजमान चाहे तो भोज का पैसा किसी गरीब बच्चे की शिक्षा दीक्षा में खर्च कर सकते है |बहुत ही उत्तम विचार...।
आज जब वृद्ध वृद्धाश्रम में जीवन काट रहे हैं फिर श्राद्ध भी श्रद्धा हीन पाखंड मात्र ही रह गया है।
लाजवाब सृजन।
बहुत सुंदर ,श्रद्धाविहीन श्राद्ध नहींं होना चाहिए
Nice Sir aapne Bahut hi badiya Jankari Di hai
Hamri site bhi dekhe = Gadget Masterji
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