आत्मा-परमात्मा का मिलन , प्रेमी -प्रेमिका का मिलन ,चाँद- चकोर का मिलन की पराकाष्टा की अनुभूति।
तुम चाँद हो मैं चकोर हूँ
न जाने .....
कबसे निहार रहा हूँ।
तन्मयता से भूल जाता हूँ
मैं क्या देख रहा हूँ।
चित्त में भ्रम होता है कभी
कि मैं "तुम " हूँ या
तुम "मैं "?
कौन हूँ मैं ? कौन हो तुम ?
बार बार ढूंढता हूँ तुम्हे
बेहोश हो आवेग में ,
"न तुम ,तुम हो ,
न मैं ,मैं हूँ "
पाता हूँ ,
जब आ जाता हूँ होश में।
एक विन्दु ......
एक सीमा ......
परितृप्ति की पराकाष्ठा ....
जिसके आगे विलीन होती है
अनन्त इच्छाएं और
अपनी आस्था ।
कालीपद "प्रसाद"
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4 टिप्पणियां:
अच्छी कविता है।
जिसके आगे विलीन होती है
अनन्त इच्छाएं और
अपनी (आस्ता)..आस्था।
एक विन्दु ......
एक सीमा ......
परितृप्ति की पराकाष्ठा ....
जिसके आगे विलीन होती है
अनन्त इच्छाएं और
अपनी आस्था ।...अर्थों की पूर्णता है हमारा होना
इच्छा कभी पूरी नहीं होती पर आस्था को जरुर राह मिल जाती है
वाह...
बहुत खूबसूरत.....
खुद को पाना ही तो जीवन है...
सुन्दर अभिव्यक्ति सर.
सादर
अनु
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