Religion aims at " getting salvation " and salvation is always personal or individual, therefore religion is strictly personal. It cannot be a matter of any community. One has to decide how to get salvation and what is the meaning of salvation. If salvation means " merging with God" or ' reaching God' then a soul can merge with God individually. 'Getting salvation following a religion' means following a path (Hinduism, Islamism, Buddhism,Jainism .etc.) through which one can walk up to God. Every individual has the right to choose a path of his own choice.
When God is Omnipresent and Omnipotent why should one go to Mandir, Masjid, Grudwara, Church etc . in search of God ?. He is present everywhere.
In mandir when you pray, you close your eyes and view HIM in your perception. You can do the same from the place where you are. Meditation is possible when there is peace around.Meditation is not possible in a noisy place. In ancient time, for meditation, Muni Rishis used to go to forest /lonely places where there is no noise . How can one meditate in noisy atmosphere of mandir ,masjid ?
Every religion gives stress over "Devotion" i .e 'Offering of sentiments-feelings-Bhavna'. One can get salvation if he is emotionally devoted to God . There is no need of offering of any material things to God. Because everything is created by him , so all belongs to him. Many religions don't allow any material offerings . But in some religion, it is allowed to safe guard the interest of so called priest. If you think deeply, you will realize that no one need to offer any material things in the name of God. Everything belongs to Him. We can only BOW before Him and Offer 'shradhaa -sentiments-feelings-Bhavna' and patra - pushpam which convey our feeling to HIM.
Since religion is personal , it should not be made public. All prabachans on TV channels are not making the people really religious/spiritual but making the innocent people orthodox. Through pranbachan they are extracting money from the God fearing people .It is neither good for the individual nor the society .
मज़हब का उद्येश्य यदि 'जन्म- मृत्यु' के बंधन से मुक्ति पाना है -अर्थात "मोक्ष " है, तो यह निश्चित रूप से बिलकुल निजी और व्यक्तिगत है। "मोक्ष" तो एक व्यक्ति को उसके कर्म के आधार (ईश्वर के प्रति भाव,भक्ति और समर्पण )से मिल सकता है। अत: मज़हबी (धार्मिक,आध्यात्मिक )कार्य केवल और केवल व्यक्तिगत कार्य है। यह किसी भी हालत में सामाजिक या सामुदायिक नहीं हो सकता। मोक्ष का अर्थ यदि "आत्मा का परमात्मा से विलय " है तो एक आत्मा का परमात्मा से विलय भी व्यक्तिगत है।अत: मज़हब व्यक्तिगत है।
"मोक्ष" के लिए कौन सा 'मत' या 'पथ ' का सहारा लेना है यह भी व्यक्तिगत विश्वास या आस्था पर निर्भर है। हर व्यक्ति को अपने अपने पथ (मत- जिसे मज़हब कहते हैं जैसे हिन्दू , इस्लाम ,सिख ,इशाई ,जैन,बौद्ध इत्यादि मत ) चुनने का हक़ है। कोई भी मत बुरा नहीं है। परन्तु एक मत पर चलने वाले कुछलोग अपने निहित स्वार्थ सिद्धि के उद्येश्य से अपने मत को श्रेष्ट बताकर दुसरे की बुराई करते हैं। यही काम दुसरे मतवाले भी करते हैं।फलस्वरूप सभी' मत' में कुछ बुराइयाँ आ गई हैं और अच्छाईयाँ दब गयी है।
जब ईश्वर सर्वशक्तिमान ,सर्वव्यापी हैं ,हर जगह ,हर व्यक्ति ,हर कण में व्याप्त हैं तो उन्हें खोजने के लिए मंदिर , मस्जिद, चर्च ,गुरूद्वारे जाने की क्या आवश्यकता है ? वहाँ जाकर भी तो वह मिलते नहीं। वहाँ जाकर आप आँखें बंद कर उनका ध्यान करते हैं।अपने कल्पना (Perception) में उनकी दर्शन करते हैं। उनसे बाते करते हैं। यह काम तो आप अपने घर में किसी शांत स्थान पर बैठकर कर सकते हैं। ईश्वर का ध्यान करना ,मनन करना यदि पूजा है तो यह काम जहाँ शांति है वहीँ हो सकता है ना कि वहाँ, जहाँ सैकड़ों लोग बाते कर रहे हों या लाउड़ स्पीकर से कोई पाठ हो रहा हो।वहाँ वास्तविक पूजा तो नहीं होती परन्तु पूजा का आडम्बर का प्रदर्शन जरुर होता है। इसीलिए प्राचीन काल में ध्यान के लिए मुनि -ऋषि शोर शराबे से दूर जंगल/पर्वत /निर्जन स्थान में जाते थे।
आजकल पूजा माने मौज मस्ती। आयोजक आपका जेब ढीला करके (चंदे के रूप में ) खूब मौज करते हैं।पूजास्थल से शांति को मार मार कर भगा दिया जाता है और गलाफाडू रैप या डिस्को बजाया जाता है।
प्रत्येक मज़हब (मत) "भाव,भावना ,भक्ति ,समर्पण "पर जोर देता है अर्थात ईश्वर को केवल आपकी "भक्ति " चाहिए और कुछ नहीं। "भक्ति" जो केवल आपकी निजी है ,व्यक्तिगत है।बाकी सब तो ईश्वर का है। यह तन ,मन भी उनका है। जो भी भौतिक चीजे हैं (रुपये -पैसे,धन,संपत्ति )सब उनका दिया हुआ है। इन सबकी उन्हें कोई चाह नहीं। उन्हें केवल आपकी श्रद्धा-भक्ति चाहिए।
किसी किसी मज़हब में भौतिक सामग्री का अर्पण वर्जित है। परन्तु किसी २ में पुजारियों के हित के लिए यह अर्पण स्वीकार किया जाता है।यदि आप गंभीरता से सोचे तो आपको महसूस होगा की ईश्वर को किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। सभी तो उनका है। हमें केवल उनके सामने सर झुककर अपनी "श्रद्धा-भक्ति -भाव" अर्पण करना है। उनके द्वारा बनाए पत्ते और फुल, हमारी भावना का सौरभ को उन तक पँहुचाने में सक्षम हैं।
सार्वजानिक रूप से टी वी चेनलों में लम्बी लम्बी प्रवचन लोगो को आध्यात्मिक नहीं बना रहे हैं वरन सीधे साधे धर्मभीरु लोगो को अन्धविश्वासी बनाकर उनसे पैसा वसूल कर रहे हैं।
कालिपद "प्रसाद "
34 टिप्पणियां:
काली पद प्रसाद जी,
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
बहुत सुन्दर, काली पद प्रसाद जी !
मोहन श्रीवास्तव जी आपकी सहमती के लिए आभार!
पि सी गोदियाल जी आपकी सहमती के लिए आभार!
बढ़िया है आदरणीय-
सच ही कहा धयान पूजा के लिए किसी आडम्बर की जरुरत नहीं
घर के अंदर भी किया जा सकता है बाहर सब ढकोसला है ...
सार्थक लेख ।
badhiya prastuti
saarthak rachna...
बहुत सुन्दर सार्थक लेख । आभार!
सार्थक लेख, बहुत सुंदर
मेरी कोशिश होती है कि टीवी की दुनिया की असल तस्वीर आपके सामने रहे। मेरे ब्लाग TV स्टेशन पर जरूर पढिए।
MEDIA : अब तो हद हो गई !
http://tvstationlive.blogspot.in/2013/07/media.html#comment-form
आपने सच उजागर किया है ....आभार !
बहुत सही विवेचन है !
बहुत सुन्दर विवेचन
बढ़िया पोस्ट है भाई साहब .
बहुत सुन्दर और सटीक लेख |
आशा
सटीक विश्लेषण.....
कालिपद प्रसाद जी क्या यह आपकी टिपण्णी है .
Kalipad Prasad ने कहा…
जहां तक आध्यात्मिक बाते हैं,कुछ तो मान्य है परन्तु जब "कल्प ,युग .जन्मों की संख्या प्रति युग में " की बात आती है तो केवल आधार हीन कल्पना लगता है .उसमे विस्तृत जानकारी की आवश्यकता है. इसे दबाकर एंटर करके देखें कुछ और ही खुल जाएगा .
इस पोस्ट पर पहले भी टिपण्णी की है .बढ़िया विश्लेषण।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रस्तुति की चर्चा कल रविवार, दिनांक 21/07/13 को ब्लॉग प्रसारण पर भी http://blogprasaran.blogspot.in/ कृपया पधारें । औरों को भी पढ़ें
शब्दश: सत्य..
सार्थक चिंतन के लिये प्रेरित करता एक विचारणीय आलेख !
सहमत हूं आपकी बात से .. टी वी पे आने वाले प्रवचन भीरु बना रहे हैं ...
सटीक विश्लेषण ...
बहुत सुन्दर...लाजवाब !!
ये लेख पढ़कर अच्छा लगा !
ईश्वर तो ये भी नहीं कहते...कि हमारे आगे सिर झुकाओ! ये हमारी ही सोच है...कि सिर ख़ुद-ब-ख़ुद .. उसके आगे झुक जाता है! सच पूछिए... तो मुझे लगता है... हमारे अच्छे कर्म में ईश्वर है~और ये सोच भी व्यक्तिगत ही है! :)
~सादर!!!
आप सही कहती है अनीता जी . ईश्वर हमसे कुछ नहीं कहते वरन श्रद्धा और भक्ति से हमारा सर अपने आप झुक जाता है. यह भी व्यक्तिगत .
सार्वजानिक रूप से टी वी चेनलों में लम्बी लम्बी प्रवचन लोगो को आध्यात्मिक नहीं बना रहे हैं वरन सीधे साधे धर्मभीरु लोगो को अन्धविश्वासी बनाकर उनसे पैसा वसूल कर रहे हैं।----
वाकई बिलकुल सच है,धर्म के नाम पर भावनात्मक खिलवाड़ हो रहा है---
धर्मभीरुओं को सजग करता आलेख
उत्कृष्ट प्रस्तुति
सादर
आग्रह है--
केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------
बढ़िया प्रस्तुति .कम लोग लिख रहें हैं इस इलाके में इसलिए आपका और भी विशेष योगदान हो जाता है .शुक्रिया आपकी अद्यतन टिप्पणियों का .
mat poochiye tv channelo ki, ye kya ko kya nahi bana rahe hai
बहुत ही सटीक व संतुलित विष्लेषण किया है आपने, आभार.
रामराम.
सही और सरल व्याख्या की है आपने धर्म की । ऐसे लेखों की अधिक आवश्यकता है ।
बहुत सारगर्भित आलेख..
सार्थक आलेख...
एक विचारणीय आलेख
सच और सटीक पोस्ट.....
सादर
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.
सार्थक लेख
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